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श्री मल्लिनाथ स्तुति शिष्य साधुगरणों का समूह शोभता हा। भगवान की वाणी से जो प्रात्मधर्म प्रगटा, जो सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र की एकता रूप परम आत्मानुभवरूप है वह सच्चा धर्मरूपी जहाज है। इस भयानक संसार सागर में डूबते हए भयभीत प्राणियों को तारने के लिये वही समर्थ है । जो भव्यजीव निश्चयं रत्नत्रयमई आत्मानुभव का शरण लेते हैं वे अवश्य कर्म काटकर मुक्त हो जाते हैं । ऐसा ही यथार्थ मोक्षमार्ग है । नागसेन मुनि ने तत्त्वानुशासन में कहां है
यो मध्यस्थः पश्यति जानात्यात्मानमात्मनात्मन्यात्मा।
दृगवगमचरणरूपस्य निश्चयान्मुक्तिहेतुरिति जिनोक्तिः ॥ ३२ ॥ भावार्थ--जो आत्मा वीतरागी होकर अपने प्रात्मा का आत्मा हो के द्वारा अपने प्रात्मा में श्रद्धान करता हझा अनुभव करता है वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र रूप होता हा निश्चय से मोक्षमार्ग है ऐसा जिनेन्द्र का कथन है ।
छन्द बोटक जिन चन्द्र वचन किरणें चमके चहु मोर शिष्य यति ग्रह दमके।
निज प्रात्म तीर्थ अति पावन है, भवसागर जन इक तारन है || १०६॥ . उत्थानिका-शंकाकार कहता है कि पहले कहे विशेषरण सहित भगवान ने किस तरह कर्मों का क्षय किया जिससे उनको सर्व पदार्थों का ज्ञान हुआ व उनको मोक्ष प्राप्त हुअा, इसका समाधान करते हैं
यस्य च शुक्लं परमतपोऽग्निानमनन्तं दृरितमधाक्षीत् ।
तं जिनसिंहं कृतकरणीयं मल्लिमशल्यं शरणमितोऽस्मि ॥११०॥
अन्वयार्थ- ( यस्य च ) जिस मल्लिनाथ की ( शुक्लं ध्यानं ) शुक्लध्यानरूपी ( परमतपोग्निः ) उत्कृष्ट तप रूपी अग्नि ने ( अनन्तं दुरितं । अनन्त कर्म को( अधाभीत् । भस्म कर डाला । तं ) उस ( कृतकरगोयं ) कृतकृत्य । जिनसिंह ) जिनेन्द्रों में प्रधान ( अशल्यं ) व मायादि शल्यरहित । मल्लि ) मल्लिनाथ भगवान को ( शरणं इतोऽस्मि । शरण में प्राप्त होता हूँ ।
भावार्थ---श्री मल्लिनाथ तीर्थकर ने प्रथम पृथक्त्व वितर्क विचार शुक्लध्यान के