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स्वयंभू स्तोत्र टीका देवतागण पन्द्रह पन्द्रह सुवर्णमई कमलों की पन्द्रह पंक्तियां रचते जाते हैं, वे कमल बड़े कोमल विकसित होते हैं । उनही पर प्रभु का विहार होता है । इस रचना को कवि ने इस अर्थ में लिया है मानों पृथ्वी आनन्द में मृदुता से हंस रही है। प्रयोजन कहने का यह है कि जहां२ प्रभु का विहार व विराजला होता है सब प्रारणी बड़ें आनन्दित रहते हैं। धम्म रसायण में अरहन्त की महिमा बताई है
अव्यावाहमणंत जह्मा सोक्खं करेइ जीवाणं ।
तह्मा सकरणामो होइ जिणो णत्थि संदेहो ।। १२५ ।। भावार्थ-क्योंकि जिनेन्द्र भगवान के प्रताप से जीवों को बाधा रहित अनन्त सुख की प्राप्ति होती है, इसलिए जिनेन्द्र वास्तव में शंकर हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है ।
छन्द त्रोटक जिन प्रागे होई गलित माना, एकांती तजै वाद थाना ।
विकसित सुवरण अम्बुज दल से, भू भी हंसती प्रभुपद तख से ॥ १८ ॥ उत्थानिका अब भगवान के वचनों को ग्रहण करने वाले शिष्यों का वर्णन करते हैं
यस्य समन्ताज्जिनशिशिरांशोः शिष्यकसाधुग्रहविभवोऽभूत् । तीर्थमपि स्वं जनन समुद्र-त्रासितसत्त्वोत्तरगपथोऽग्रम ॥ १०६॥
अन्वयार्थ -( यस्य जिनशिशिरांशोः ) जिस मल्लिनाथ स्वामी रूपी चन्द्रमा की परम शीतल वचनरूपी किरणों के ( समंतात् ) सर्व तरफ ( शिष्यकसाधुग्रहविभवः ) उनके शिष्य साधुगरण रूपी ग्रह तारकों को सम्पत्ति ( अभूत ) होती हुई ( स्वं तीर्थ अपि ) जिनका आत्मानुभव रूपी तीर्थ भी ( जनसमुद्रत्रासितसत्त्वोत्तरणपथोऽग्रम् ) संसाररूपी समुद्र से भयभीत प्राणियों को तारने के लिए मुख्य उपाय होता हुआ ।
भावार्थ-यहां कवि ने श्री मल्लिनाथ स्वामी को चन्द्रमा की उपमा दी है। जैसे चन्द्रमा की किरणें परम शीतल फैलती हैं वैसे भगवान की वाणी रूपी किरणें परम शांति देने वालो होती चारों तरफ फैलती हुई हैं। जैसे चन्द्रमा के चारों तरफ ग्रह व तारागरण शोभते हैं वैसे श्री मल्लिनाथ स्वामी तीथंकर के चारों तरफ से ही समवसरण में उनके
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.-- Fashnu...
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