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श्री मल्लिनाथ स्तुति लोयालोयविदहू, तह्मा णामं जिणस्य विहूत्ति ।
- जरा सीयलवयणो तह्मा सो वच्चए चंदो || १२६ ।। भावार्थ--अरहन्त परमात्मा का मुख पूर्ण चन्द्र के समान हैं । जटा मुकुट से रहित है, आभरण बिना है, व वस्त्र व स्त्री आदि संग से रहित है तथा परम शांतिकारक है। क्योंकि वे लोकालोक के ज्ञाता हैं । इसलिये जिनेन्द्रनाथ को विष्णु कहते हैं और उनको वारणी परम शोतल है इसलिये उनको चन्द्रमा कहते हैं ।
छन्द त्रोटक जिनकी मूरति है कनक मयी, प्रसरी भामण्डल रूप मयो ।
वाणी जिनकी सत्तत्त्व कथक, स्यात्पदपूर्व यतिगणरंजक ।। १०७ ।। उत्थानिका--शङ्काकार कहता है कि आपकी वाणी यदि प्रमाण से बाधित हो तब उनको कैसे रंजायमान कर सकेगी? इसका समाधान करते हैं ।
यस्य पुरस्ताद्विगलितमाना न प्रतितीर्थ्या भुवि विवदन्ते । भूरपि रम्या प्रतिपदमासीज्जातविकोशाम्बुज मृदुहासा ॥ १०८ ॥
अन्वय--( यस्य ) जिस भगवान के ( पुरस्तात् ) सामने (प्रतितीर्थ्याः) एकांत मतवादी (विगलितमाना) अपने मान को खण्डन किये हुए (भुवि) पृथ्वी में (न विवदन्ते) वाद नहीं कह रहे हैं (भूः अपि। पृथ्वी भी ( प्रतिपदम् ) जहां भगवान के चरण पड़ते हैं ( जातविकोशाम्बुजमृदुहासा ) फूले हुए सुवर्णमई कमलों के कोमल हास्य को झलकाती हुई ( रम्या ) शोभनीक ( प्रासीत् ) हो जाती है ।
भावार्थ - भगवान की वारणी ऐसी सत्यार्थ व अबाधित है कि जिसको सुनकर एकांतमतवालों का मान गलित हो जाता है, वे ऐसे लज्जित हो जाते हैं कि प्रापके सामने अपने एकांतवाद का प्रकाश नहीं कर सकते। यही कारण है कि बड़े-बड़े बुद्धिमान गणघरदेव प्रादि श्रापको वारणी सुनकर संतुष्ट हो जाते हैं, उनका मन प्रफुल्लित हो जाता है। भगवान की ऐसी महिमा है कि पृथ्वी भी प्रानन्द से मग्न हो जाती है। उसका झलकाव तब होता है जब तीर्थङ्कर भगवान का विहार होता है। उस समय आकाश में