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(एकः अपि दोषः) क्षुधा (भूख) वगैरह दोषों में से एक भी दोष नहीं है (स एव) वही शुद्धात्मा (निरंजनः) निरंजन है, ऐसा तू (भावय) जान ।
भावार्थ-ऐसे निज शुद्धात्माके परिज्ञानरूप वीतराग निर्विकल्प समाधिमें स्थित होकर तू अनुभव कर। इस प्रकार तीन दोहोंमें जिसका स्वरूप कहा गया है, उसे ही निरंजन जानो, अन्य कोई भी परकल्पित निरंजन नहीं है । इन तीनों दोहों में जो निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाववाला निरंजन कहा गया है, वही उपादेय है ।।१६-२१।।
अथ धारणाध्येययन्त्रमन्त्रमण्डलमुद्रादिकं व्यवहारध्यानविषयं मन्त्रवादशास्त्रकथितं यचनिर्दोषपरमात्माराधनाध्याने निषेधयन्ति
जाणु ण धारण धेउ ण वि जासु ण जंतु ण मंतु । जासु ण मंडलु मुद्द ण वि सो मुणि देउं अणंतु ॥२२॥
यस्य न धारणा ध्येयं नापि यस्य न यन्त्रं न मन्त्रः । यस्य न मण्डलं मुद्रा नापि तं मन्यस्व देवमनन्तम् ।।२२॥
आगे धारणा, ध्येय, यंत्र, मंत्र, मंडल, मुद्रा आदिक व्यवहारध्यानके विषय मंत्रवाद शास्त्र में कहे गये हैं, उन सबका निर्दोष परमात्माकी आराधनारूप ध्यानमें निषेध किया है-(यस्य) जिस परमात्माके (धारणा न) कुंभक, पूरक, रेचक नामवाली वायुधारणादिक नहीं है, (ध्येयं नापि) प्रतिमा वगैरह ध्यान करने योग्य पदार्थ भी नहीं है, (यस्य) जिसके (यंत्रं न) अक्षरोंकी रचनारूप स्तंभन मोहनादि विषयक यंत्र नहीं है, (मंत्रः न) अनेक तरहके अक्षरोंके बोलने रूप मंत्र नहीं है, (यस्य) और जिसके (मंडलं न) जलमंडल, वायुमंडल, अग्निमंडल, पृथ्वीमंडलादिक पवनके भेद नहीं हैं, (मुद्रा न) गारुडमुद्रा, ज्ञानमुद्रा वगैरह मुद्रा नहीं हैं; (तं) उसे (अनंत) द्रव्याथिकनयसे अविनाशी तथा अनंत ज्ञानादिगुणरूप (देवं मन्यस्व) परमात्मदेव जानो।
भावार्थ-अतीन्द्रिय आत्मीक-सुखके आस्वादसे विपरीत जिह्वाइन्द्रीके विषय (रस) को जीतके निर्मोह शुद्ध स्वभावसे विपरीत मोहभावको छोड़कर और वीतराग सहज़ आनन्द परम समरसोभाव सुखरूपी रसके अनुभवका शत्रु जो नौ तरहका कुशील उसको तथा निर्विकल्पसमाधिके घातक मनके संकल्प विकल्पोंको त्यागकर हे प्रभाकर