________________
[ २४ ] भट्ट, तू शुद्धात्माका अनुभव कर । ऐसा ही दूसरी जगह भी कहा है-"अक्खाणेति" इसका आशय इस तरह है कि, इन्द्रियोंमें जीभ प्रबल होती है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में मोह कर्म बलवान होता है, पांच महाव्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत प्रबल है, और तीन गुप्तियोंमेंसे मनोगुप्ति पालना कठिन है । ये चार बातें मुश्किलसे सिद्ध होती हैं ।।२२।।
अथ वेदशास्त्रेन्द्रियादिपरद्रव्यालम्बनाविषयं च वीतरागनिर्विकल्पसमाधिविषयं च परमात्मानं प्रतिपादयन्ति
वेयहिं सत्थहिं इदियहिं जो जिय मुणहु ण जाइ । हिम्मल-झाणहं जो विसउ सो परमप्पु अणाइ ॥२३॥
वेदैः शास्त्ररिन्द्रियैः यो जीव मन्तुं न याति ।।
निर्मलध्यानस्य यो विषयः स परमात्मा अनादिः ।।२३।।
आगे वेद, शास्त्र, इन्द्रियादि परद्रव्योंके अगोचर और वीतरागनिर्विकल्प समाधिके गोचर (प्रत्यक्ष) ऐसे परमात्माका स्वरूप कहते हैं-(वेदैः) केवलीकी दिव्यवाणीसे (शास्त्रैः) महामुनियोंके वचनोंसे तथा (इंद्रियः) इन्द्रिय और मनसे भी (यः) जो शुद्धात्मा (मंतुं) जाना (न याति) नहीं जाता है, अर्थात् वेद, शास्त्र ये दोनों शब्द अर्थस्वरूप हैं, आत्मा शब्दातीत है, तथा इन्द्रिय, मन विकल्परूप हैं और मूर्तीक पदार्थको जानते हैं, वह आत्मा निर्विकल्प है, अमूर्तीक है, इसलिये इन तीनोंसे नहीं जान सकते । (यः) जो आत्मा (निर्मलध्यानस्य) निर्मल ध्यानके (विषयः) गम्य है, (सः) वही (अनादिः) आदि अन्त रहित (परमात्मा) परमात्मा है, अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग, इन पांच तरह आस्रवोंसे रहित निर्मल निज शुद्धात्माके ज्ञानकर उत्पन्न हुए नित्यानन्द सुखामृतका आस्वाद उस स्वरूप परिणत निर्विकल्प अपने स्वरूपके ध्यानकर स्वरूपकी प्राप्ति है ।
___ आत्मा ध्यानगम्य ही है, शास्त्रगम्य नहीं है, क्योंकि जिनको शास्त्र सुननेसे ध्यानकी सिद्धि हो जावे, वे ही आत्माका अनुभव कर सकते हैं, जिन्होंने पाया, उन्होंने ध्यानसे ही पाया है, और शास्त्र सुनना तो ध्यानका उपाय है, ऐसा समझकर अनादि अनन्त चिद्रूपमें अपना परिणाम लगाओ। दूसरी जगह भी 'अन्यथा' इत्यादि कहा है । उसका यह भावार्थ है, कि वेद शास्त्र तो अन्य तरह ही हैं, नय प्रमाणरूप हैं, तथा ज्ञानकी पंडिताई कुछ और ही है, वह आत्मा निर्विकल्प है, नय प्रमाण निक्षेपसे रहित