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[ २२ ] यस्य न वर्णो न गन्धो रसः यस्य न शब्दो न स्पर्शः । यस्य न जन्म मरणं नापि नाम निरञ्जनस्तस्य ॥१६॥ यस्य न क्रोधो न मोहो मदः यस्य न माया न मानः । यस्य न स्थानं न ध्यानं जीव तमेव निरञ्जनं जानीहि ॥२०॥ अस्ति न पुण्यं न पापं यस्य अस्ति न हर्षो विषादः ।
अस्ति न एकोऽपि दोषो यस्य स एव निरञ्जनो भावः ।।२१।। त्रिकलम । . आगे पहले कहे हुए निरंजनस्वरूपको तीन दोहा-सूत्रोंसे प्रगट करते हैं(यस्य) जिस भगवान्के (वर्णः) सफेद, काला, लाल, पीला, नीलस्वरूप पाँच प्रकार वर्ण (न) नहीं है. (गंधः रसः) सुगन्ध दुर्गन्धरूप दो प्रकारकी गन्ध (न) नहीं है, मधुर, आम्ल (खट्टा), तिक्त, कटु, कषाय (क्षार) रूप पांच रस नहीं हैं (यस्य) जिसके (शब्दः न) भाषा अभाषारूप शब्द नहीं है, अर्थात् सचित्त अचित्त मिश्ररूप कोई शब्द नहीं है, सात स्वर नहीं हैं (स्पर्शः न) शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु, लघु, मृदु, कठिन रूप आठ तरहका स्पर्श नहीं है, (यस्य) और जिसके (जन्म न) जन्म जरा नहीं है, (मरणं नापि) तथा मरण भी नहीं है (तस्य) उसी चिदानन्द शुद्धस्वभाव परमात्मा की (निरंजनं नाम) निरंजन संज्ञा है, अर्थात् ऐसे परमात्माको ही निरंजनदेव कहते हैं । फिर वह निरंजनदेव कैसा है
(यस्य) जिस सिद्धपरमेष्ठीके (क्रोधः न) गुस्सा नहीं है, (मोहः मदः न) मोह तथा कुल जाति वगैरह आठ तरहका अभिमान नहीं है, (यस्य माया न मानः न) जिसके माया व मान कषाय नहीं है, और (यस्य) जिसके (स्थानं न) ध्यानके स्थान नाभि, हृदय, मस्तक वगैरह नहीं है (ध्यानं न) चित्तके रोकनेरूप ध्यान नहीं है, अर्थात् जव चित्त ही नहीं है, तो रोकना किसका हो (स एव) ऐसे निजशुद्धात्माको हे जीव, तू जान । सारांश यह हुआ कि अपनी प्रसिद्धता (बड़ाई) महिमा, अपूर्व वस्तुका मिलना, और देखे सुने भोग इनकी इच्छारूप सब विभाव परिणामोंको छोड़कर अपने शुद्धात्माकी अनुभूतिस्वरूप निर्विकल्प समाधि में ठहरकर उस शुद्धात्माका अनुभव कर । पुनः वह निरंजन कैसा है
(यस्य) जिसके (पुण्यं न पापं न अस्ति) द्रव्यभावरूप पुण्य नहीं, तथा पाप नहीं है, (हर्षः विषादः न) राग द्वेषरूप खुशी व रंज वहीं हैं (यस्यः) और जिसके