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स्वयंभूस्तोत्र टीका उत्थानिका-ब इस विषय को संकोच करते हैं
इति निरुपमयुक्तिशासनः प्रियहितयोगगुरणाऽनुशासनः ।
अरजिन ! दमतीर्थनायकस्त्वमिव सतां प्रतिबोधनायकः ॥१०४।।
अन्वयार्थ--[ अरजिन ] हे अर जिनेन्द्र ! [ इति निरुपमयुक्तिशासनः ] इस तरह मापका मत उपमा रहित निर्वाध प्रमाण की युक्तियों से सिद्ध है तथा [ प्रियहितयोगगुणानुशासनः] वह मत सुखदाई व हितकारी मन, वचन, काय की क्रिया का व सम्यग्दर्शनादि गुरगों का उपदेश करने वाली है। ऐसे शासन के स्वामी [स्वम्] आप [दमतीर्थनायकः] इन्द्रिय व कषाय को विजय करने वाले धर्मतीर्थ के स्वामी हैं [ इव ] अापके समान [कः] और कौन है जो [ संतां प्रतिबोधनांय ] सज्जन पंण्डितों को यथार्थ ज्ञान दे सकता है ?
भावार्थ-हे अरनाथ ! आपका शासन ही यथार्थ प्रमाण से सिद्ध है तथा वही श्रात्महित का सच्चा मार्ग बताने वाला है । आपही सच्चे जिन धर्म के उपदेष्टा हैं । सज्जन जन यही समझते हैं कि आपके समान कोई भी सच्चा बोध देने को समर्थ नहीं है ।
पद्धरी छन्द निरुपम प्रमाण से सिद्ध धर्म. सुखकर हितकर गुण कहत मर्म ।
अरजिने तुम सम जिन तीर्थनाथ, नहिं कोई भवि बीघक सनाथ ॥ १०४ ।। उत्थानिका-प्राचार्य इस स्तुति का फल चाहते हैं
मतिगुणविभवानुरूपतस्त्वयि वरदाऽऽगमहष्टिरूपतः ।
गुरणकशमपि किञ्चनोदितं मम भवतात् दुरितासनोदितम्।।१०५।।
अन्वयार्थ-[ वरद ] हे उत्कृष्ट मोक्षपद के दाता ! [ मतिगुणविभवानुरूपतः ] अपनो बुद्धि की शक्ति के अनुकूल [ आगमदृष्टिरूपतः ] जिनागम में जैसे अापके गुरण कहे गये हैं उसी के समान [त्वयि] आपके लिये [ किंचन गुणकृशम् अपि उदितं ] जो कुछ भी गुणों का अंश मात्र मेरे से वर्णन किया गया है वह [ मम दुरितासनोदितम् भवतात् ) मेरे पापों को नाश करने में ही समर्थ होवे ।