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श्री अरनाथ स्तुति अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः ।।
अनेकान्तः प्रमाणात तदेकान्तोऽपितानयात् ॥ १०३ ।। .. अन्वयार्थ-(प्रमाणनयसाधनः) प्रमाण और नय से सिद्ध होने वाला ( अनेकांतः अपि ) अनेकांत भी ( न केवल सम्यक् एकांत ) ( अनेकांतः ) अनेकांत स्वरूप है। अर्थात् किसी अपेक्षा से अनेकांत है व किसी अपेक्षा से एकांत है [ ते ] आपके मत से [प्रमाणात प्रमाण की अपेक्षा से जो सर्व धर्मों को एक साथ जानने वाला है [ अनेकांतः]
वह अनेकांत अनेक धर्म स्वरूप है व [ अर्पितात् नयात् ] किसी विशेष नय की मुख्यता से __ [ तद् एकांतः ] वह अनेकांत एकांत स्वरूप है अर्थात् एक स्वभाव को बताने वाला है।
भावार्थ-हे परनाथ स्वामी ! प्रापके मत में अनेकांत भी किसी अपेक्षा अनेकांत है किसी अपेक्षा से एकांत है। यह मिथ्या एकांत बिना अपेक्षा के नहीं है किन्तु अपेक्षा सहित सम्यक् एकान्त है। प्रमारण और नय से अनेकांत स्वरूप वस्तु की सिद्धि होती है। प्रमारण उसे कहते हैं जो सर्व धर्मों को विषय करने वाला है । नय उसे कहते हैं जो उनमें से एक किसी धर्मको विषय करनेवाला है। प्रमाण की अपेक्षासे प्रनेकांत अनेकांत स्वरूप है प्रर्थात् अनेक धर्म स्वरूप वस्तु अनेक धर्म स्वरूप ही दिखती है । वही अनेकांत रूप वस्तु जब किसी विशेष नय की अपेक्षा से देखी जाती है तब एक किसी धर्म स्वरूप दिखती है, उस समय अन्य धर्म गौरण होते हैं। तब वह एकान्त स्वरूप कही जाती है। इस तरह अपेक्षा सहित मानने से कोई भी दोष नहीं आता है । अपेक्षा रहित अनेकांत व एकांत सद सदोष होते हैं। वस्तु अनेक धर्म स्वरूप है, नित्य अनित्य. एक अनेक आदि स्वरूप है । इसी को समझने के लिए प्रमाण और नय दो साधन हैं । प्रमारण की अपेक्षा वह अनेक धर्म स्वरूप झलकती है, नय की अपेक्षा वह एक-एक धर्म स्वरूप झलकती है । नय किसी एक को मुख्य करके व दूसरे धर्मों को गौरण करके बताता है । वह एक धर्म को मुख्य करके कहते हुए अन्य धर्मों का प्रभाव नहीं करता है । इस तरह स्याद्वाद से निर्वाध वस्तु सिद्ध होती है ।
पद्धरी छन्द
है अनेकांत भी अनेकांत, साधत प्रमाण नय विना ध्वांत । स प्रमाण दृष्टि है अनेकान्त, कोई नय मुख से है एकान्त ॥ १.३॥