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__ श्री मल्लिनाथ जिन स्तुति
१७६ भावार्थ-यहां स्वामी समन्तभद्र ने कहा है कि मैं श्री अर जिनेन्द्र के गुणों के कहने में असमर्थ हूं तथापि जो कुछ मेरे मति श्रुत ज्ञान का अंश है उसके बल से मैंने कुछ गुणों का अंश कहा है, वह भी अपनी मनोकल्पना से नहीं कहा है, किन्तु जिन आगम में जैसा आपके गुरणों का निरूपण है उसी के अनुसार कुछ कहा है । यह स्तुति इसीलिये मेरे से की गई है कि जो कुछ कर्म मैल मेरे आत्मा में है वह इस स्तुति के द्वारा नाश को प्राप्त हो और मेरा आत्मा पवित्र हो जावे ।।
पद्धरा छन्द
मति अपनी के अनुकूल नाथ, पागम जिन कहता मुक्तिनाथ ।। तद्वत् गुण ग्रंश कहा मुनीश, जामे क्षय हों मम पाप ईग ॥ १०५ ।।
( १९ ) श्री मल्लिनाथ स्तुतिः यस्थ महर्षेः सकलपदार्थ-प्रत्यवबोधः समजनि साक्षात् । साऽमरमयं जगदपि सर्व प्राञ्जलिभूत्वा प्रणपतति स्म ॥१०६।।
अन्वयार्थ-[यस्य महर्षेः] जिस मल्लिनाथ महाऋषि के [सकलपदार्थप्रत्यवबोधः] सम्पूर्ण पदार्थों का पूर्ण ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान[साक्षात् ] अत्यन्त प्रत्यक्षरूप से [समज नि] उत्पन्न हया तब [ सामरमर्त्य ] देव व मानव सहित [ सर्व जगत् अपि ] सर्व ही जगत के प्राणियों ने [ प्राञ्जलिभूत्वा ] हाथों को जोड़कर [ प्रणपतति स्म ]नमस्कार किया ।
भाषार्थ-यहां पर श्री मल्लिनाथ तीर्थङ्कर की केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय का दृश्य दिखलाया है। प्रभु ने महान शुक्लध्यान को जगाया उसके प्रभाव से जब घातीय को का नाश किया तब प्रभु के पूर्ण सर्वोत्कृष्ट असहाय प्रत्यक्ष प्रात्मीक स्वभाव रूप केवलज्ञान उत्पन्न हा, उस समय चार प्रकार के देव व मानवों ने बारबार हाथ जोड़कर प्रभुको अरहन्त परमात्मा मानकर नमस्कार किया।
प्रभु केवलज्ञानी होकर अपने ज्ञान द्वारा सर्वव्यापी हो जाते हैं तब उनको निल कह सकते हैं. जैसा मात्मस्वरूप में कहा हैविश्वं हि द्रव्यपर्यायं विश्वं त्रैलोक्यगोचरम् । व्याप्तं शानविपा येन स विष्णुपिको जगत् ॥३१॥
भावार्थ-जिसने तीन लोक के व अलोक के सर्व पदार्थों के द्रव्य गुण पर्यायों को