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स्वयंभू स्तोत्र टीका
भावार्थ- जो परम पूज्यनीय है, परमैश्वर्यवान है इससे वही महान ईश्वरपने को प्राप्त है जो तीन धातु जन्म जरा मरण व द्रव्यकर्म, सावकर्म, नोकर्म से रहित है । इसीसे वह परमेश्वर है । उसे मैं वन्दता करता हूं ।
पद्धरी छन्द
सर्वज्ञ ज्योति से जो प्रकाश, तेरी महिमा का जो विकास । है कौन सचेतन प्राणि नाथ, जो नमन करै नहिं नाय माथ ।। ६६ । उत्थानिका -प्रब भगवान की दिव्यध्वनि का महात्म्य कहते है
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तव बागभूतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम् । प्रीणयत्यसृतं यद्वत् प्राणिनो व्यापि संसदि ॥ ६७
अन्वयार्थ - - ( तव ) यापका ( श्रीमत् ) यथार्थ वस्तु को कथन करने रूप लक्ष्मी को रखने वाला (सर्वभाषास्वभावकम् ) द सर्व प्राणियों की भाषा रूप होने के स्वभाव को धरने वाला ( वागमृतं ) वचन रूपी अमृत ( संसदि व्यापि ) समवसरण की सभा में फैला करके ( अमृतं यद्वत् ) अमृत के समान ( प्राणिनः ) प्राणियों को ( प्रीणयति ) तृप्त करता है ।
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भावार्थ - - श्रापकी केवलज्ञानमई भूमिका से रची हुई दिव्यध्वनि यथार्थ वस्तु स्वरूप को कहने वाली है । यद्यपि वह मेघ की ध्वनि के समान निरक्षरी होती है परन्तु उसका यह स्वभाव है कि अनेक भाषा रूप परिणमन कर जाती है-सभा निवासी देव, मानव व पशु सब अपनी २ भाषा में सुनते हैं, सबको ऐसा झलकता है मानो हमारी भाषा में ही प्रभु उपदेश दे रहे हैं। वह वारणी इतनी गम्भीर होती है कि बारह सभावासियों को सबको स्पष्ट सुनाई देती है । वह वाणी ऐसी सुखदाई होती है कि मानो अमृत की धारा बरसती है जैसे- अमृत के पीने से प्राणियों को सन्तोष होता है वैसा संतोष श्रोताओं को होता है । उनका हृदय कमल प्रफुल्लित हो जाता है । वे परमोपकारी उपदेश का लाभ कर अपने हित का सच्चा मार्ग पा लेते । इसी से है जिनेन्द्र ! आपको परम हितोपदेशी कहते हैं । प्राप्तस्वरूप में कहा है