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श्री श्ररनाथ स्तुसि
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• सर्वार्थभाषया सम्यक् सर्वलेशप्रघातिनाम् । सत्त्वानां बोधको यस्तु बोधिसत्वस्ततो हि सः ॥४०॥
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भावार्थ - जो प्रर्हन्त भगवान सर्व भाषामय सले प्रकार श्रर्थ को प्रतिपादन करने बाले वचनों से सर्व प्राणियों को उनके सर्व क्लेश नाश करने के लिये उपदेश देता है वही यथार्थ बोधिसत्त्व व हितोपदेष्टा है ।
पद्धरी छन्द ।
तुम वचनामृत तत्त्व प्रकाश, सब भाषामय होता विकास ।
सत्र सभा व्यापकर तृप्तकार, प्राणिन को अमृतवत् विचार ||१७||
उत्थानिका -- शंकाकार कहता है कि एकान्त मत में भी एकान्त स्वरूप दिखानेबाले वचनों से भी वस्तु का यथार्थ स्वरूप समझ में आता है व उससे प्राणियों को ग्रानन्द भी होता है तब आपके वचनों में ही क्या ऐसा अतिशय है, इस शंका का समाधान करते हैं-
अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्वं मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः ॥८॥
. श्रन्वयार्थ - ( ते ) श्रापका ( श्रनेकान्तात्मदृष्टि : ) अनेकान्त मत (सती) मत्य है ( विपर्ययः) उससे उल्टा एकान्तमत ( शून्यः ) सत्य है ( ततः) उस एकांत मत से (सर्व मृषोक्तं स्यात्) सर्व ही कथन मिथ्या कहा जायगा ( तत् स्वघाततः प्रयुक्तं ) वह एकान्त मत अपना ही घात करने से बिलकुल प्रयोग्य है ।
भावार्थ - आचार्य, शंकाकार को कहते हैं कि एकान्त मत से वस्तु का यथार्थ स्वरूप कहा ही नहीं जा सकता । कोई वैसे ही मन में एकान्त मत से सन्तोष मानले तो यह उसका ज्ञान है । अनेकान्त मत ही वस्तु को यथार्थ प्रतिपादन कर सकता है । इस बात को श्री सुमतिनाथ के स्तोत्र में भले प्रकार बताया जा चुका है । वस्तु का स्वरूप ही श्रनेक स्वभावरूप है । वस्तु स्वद्रव्यादि की अपेक्षा लत्रूप है, पर द्रव्यादि की अपेक्षा प्रसवरूप है । वस्तु गुणों की सहचारिता की अपेक्षा नित्वरूप है । पर्याय के - पलटने की अपेक्षा नित्यरूप है । सर्वथा एकरूप मानने से वस्तु कार्यकारी होती है— वस्तु को सिद्धि ही नहीं हो सकती । यह बात पहले बता चुके हैं । इसलिये अनेकान्त नत ही सच्चा है । एकान्त मत बिलकुल मिथ्या है । एकान्त मत से जो कुछ कहा जायगा