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श्री
नाथ जिन स्तुति
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प्र तरङ्ग में श्रात्मध्यान का तेज ऐसा प्रगट हुआ कि जिसने प्रज्ञान प्रबंधकार को सर्वथा नाश कर दिया, आपमें पूर्ण केवलज्ञान प्रगट होगया । प्राप्तस्वरूप में कहा है
भावार्थ- जब अरहन्त के धातु से रहित स्फटिक पाषाण के
· तदा स्फाटिकसंकाशं तेजो मूर्तिमयं वपुः । जायते क्षीणदोषस्य सप्तघातुविवर्जितम् ।। १२ ।। रागादि दोष क्षय हो जाते हैं तब उनका शरीर सात समान निर्मल तथा परम तेजरूप हो जाता है
पद्धरी छन्द
तेरा वपु भामण्डल प्रसार, हरता सब बाहर तम प्रपार | तब ध्यान तेज का है प्रभाव, अन्तर प्रज्ञान हरै कुमाव ||५||
उत्थानका- इस तरह मोह नाश होने से जो अतिशय प्राप्त हुआ उसकी स्तुति करके मन भगवान की पूजा की महिमा को कहते हैं
सर्व जज्योतिषोद्भूतस्तावको महिमोदयः ।
कं न कुर्यात् प्रणत्र ते सत्त्वं नाथ ! सचेतनम् ॥ ६६ ॥
श्रन्वयार्थ - [ सर्वज्योतिषा उद्भूतं ] सर्वज्ञपने की ज्योति से उत्पन्न हुआ ( तावक: ) आपकी ( महिमोदयः ) महिमा का प्रकाश ( नाथ ) हे नाथ ! ( कं सचेतनं सत्त्वं ) किस विवेकवान प्रारणों को ( ते प्रणत्रं न कुर्यात् ) ग्रापके आगे नम्रीभूत नहीं कर सकता है ?
भावार्थ- हे घरनाथ ! श्राप सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा होगए तद प्रापका ऐसा महात्म्य प्रगटा कि जो कोई विवेकी प्रारणी आपके सामने श्राया उसी ने ही प्रापको हृदय से नमस्कार किया । अर्थात् आपका अरहन्त अवस्था का ऐसा प्रभाव है कि हरएक प्रारणी -बड़े-बड़े गरधर आपको नमस्कार करता है, कोई भी प्रापके सामने उद्धत नहीं रह सकताइन्द्र, चक्रवर्ती, पशु-पक्षी सबही आपको बड़ी मक्ति से नमन करते हैं । कहा है-
प्राप्तस्वरूप में
महत्वादीन्वरत्वाच्च यो महेश्वरतां गतः । धातृकविनिवतरत वन्दे परमेश्वरम् ॥ २७ ॥