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स्वयंभू स्तोत्र टीका
ध्यानमई रूप ऐसा प्रगट होता है मानो श्रात्मज्ञान में, वीतरागता में व पूर्ण दया या श्रहिंसा भाव में लीन है । ऐसा शांत ध्यानमय स्वरूप ही दर्शक के मन में यह असरकारक भाव पैदा कर देता है कि प्रभु में कोई राग-द्व ेष मोह, काम विकार व तृष्णा आदि का दोष नहीं है । पात्रकेसरीस्तोत्र में कहा है
क्षयाच्च रतिरागमोहभयकारिणां कर्मणां । कषायरिपुनिर्जयः सकलतत्त्वविद्योदयः || अनन्यसदृश सुख त्रिभुवनाधिपत्यं च ते । सुनिश्चितमिद विभो ! समुनि सम्प्रदायादिभिः ||१०||
भावार्थ- हे विभु ! मुनियों के सम्प्रदायों ने यह भले प्रकार निश्चय कर लिया है कि आपने रति, राग, मोह, भय को उत्पन्न करने वाले कर्मों का नाश कर दिया है। इससे आप क्रोधादि कषायरूपी शत्रुत्रों के पूर्ण विजयी हैं, आपमें सम्पूर्ण तत्वों का ज्ञान उदय होरहा है व आपमें अनुपम प्रात्मीक सुख है व प्राप तीन भुवन के स्वामी ही हैं ।
पद्धरी छन्द
हे धीर प्रापका रूप सार, भूषण प्रायुध वसनादि टार । विद्या दम करुणामय प्रसार, कहता प्रभु दोष रहित श्रपारं ॥ ९४ ॥
उत्थानिका - मोहादि के नाश होने पर और क्या हुआ सो कहते हैंसमन्ततोsभासां ते परिवेषेण भूयसा ।
तमो बाह्मणाकीर्णमध्यात्मं ध्यानतेजसा ॥ ६५ ॥
श्रन्वयार्थ - (ते) आपके ( समंततः ) सब तरफ फैले हुए (प्रङ्गभासा) शरीर की प्राभा के ( परिवेषेण ) परिमण्डल से ( भूयसा ) अतिशय करके [ वाह्य' तमः] बाहरी अन्धकार ( पाकीर्णं ) नाश होगया तथा ( ध्यानतेजसा ) आपके ग्रात्मध्यान के तेज से ( अध्यात्मं ) अन्तरङ्ग का प्रज्ञानादि अन्धकार नाश हो गया ।
भावार्थ - हे प्रभु! आपके शरीर का तेज ऐसा विशाल है जो चारों तरफ फैल गया और उसने आपके पास एक प्रभामण्डल का रूप धारण कर लिया। इस प्रभामण्डल के प्रकाश से आपके निकट बाहरी अधिकार बिलकुल न रहीं । आप जहां समवसरण में विराजते हैं वहां रात दिन का भेद ही नहीं रहता है-सदा ही प्रकाश बना रहता है । श्रापके