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श्री कुंथुनाथ स्तुति
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को [ निरस्य ] दूर करके [ उत्तरस्मिन् अतिशयोपपन्ने ध्यानद्वये ] दूसरे दो उत्तम ध्यानों में अर्थात् धर्म और शुक्लध्यानों में [ ववृतिषे] वर्तन किया ।
भावार्थ-साधुपद में कुंथुनाथ भगवान ने जो उपवास, ऊनोदर, रसत्याग, वृत्ति - परिसंख्यान, विविक्तशय्यासन व कायक्लेश इन बाहरी तपों को बहुत ही कठिन रूप से इसीलिये पालन किया कि अन्तरंग तप की वृद्धि हो । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छः अन्तरंग तप हैं । इनमें मुख्य तप आत्मध्यान है । जितना अधिक शरीर का सुखियापना हटाया जाता है व शरीर से ममता छोड़ी जाती है उतना ही अधिक उपयोग आत्मा के ध्यान में जुड़ता है । प्रापने भार्त रौद्र इन दो खोटे ध्यानों को कभी नहीं किया, क्योंकि वे संसार के कारण हैं और परिणामों को कलुषित रखने वाले हैं । इनको त्यागकर सातवें श्रप्रमत्त गुणस्थान तक तो धर्म ध्यान का प्राराधन किया फिर क्षपक श्रेणी पर श्रारूढ़ हो शुक्लध्यान का सेवन किया । शुद्धोपयोग का लाभ इन ध्यानों से होता है जिससे श्रद्भुत वीतरागता पैदा होती है, जिससे मोह का क्षय किया जाता है। ध्यान का मुख्य हेतु मोह का नाश है जब मोह का नाश होगया तब फिर अन्य कर्म तो स्वतः एक तमुहूर्त में ही गिर जाते हैं। यहां यह दिखलाया है कि मुनिपद धारने का हेतु श्रात्म ध्यान की वृद्धि करना है । श्रात्मध्यान के होते हुए जो श्रात्मा में अपूर्व श्रानन्द भरा है उसका स्वाद आता है और जिस समय श्रात्मानन्द का स्वाद प्राता है वही वह समय है जब कर्मों का नाश होता है । इष्टोपदेश में कहा है
श्रानन्दो निर्दहत्युद्ध' कर्मेघनमनारतम् । न चासो खिद्यते योगी बहिदु : खेष्वचेतनः ।। ४८ ।।
भावार्थ - यही प्रात्मानन्द ही निरन्तर कर्मों के ईंधन को जला देता है । तब ऐसा आत्मानंद में मगन योगी बाहर दुःखों के पड़ने पर भी उन पर ख्याल न करता हुआ खेद को नहीं पाता है ।
छन्द त्रोटक
बाहर तप दुष्कर तुम पाला, जिन प्रातम ध्यान बढ़े प्राला । द्वय ध्यान प्रशुभ नहि नाथ करे, उत्तम द्वय ध्यान महान घरे ॥ ८३॥
उत्पानिका --- ध्यान में वर्तन करके क्या किया सो कहते हैं