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बृ० स्वयंभूस्तोत्र टीका। विषयों को भोगते ही क्यों है ? इसका समाधान किया है कि यह भोग शरीर के कष्ट को कुछ देर के लिये हरने के लिये निमित्तकारण पड़ जाते हैं,क्षणिक सुख देते हैं। जैसे किसी को रसनेंद्रिय के विषय में किसी भोज्य पदार्थ के खाने की इच्छा हुई। अब जब वह मिल जाती है तो कुछ आकुलता कुछ देर के लिये मिट जाती है परन्तु अन्तरंग की तृष्णा का शमन नहीं होता है, वह तो जितना जितना भोग भोगा जाता है उतनी २ बढ़ती ही जाती हैं । एक दीर्घकाल की आयु भर यदि एक चक्रवर्ती मनोहर विषयभोग करता रहे तो भी वह कभी भी तृप्ति नहीं पाएगा। यदि मरण का समय आ जावे तो भी चाह की दाह में जलता हुआही मरग करेगा । ऐसा वस्तु स्वरूप हे प्रभु ! आपने अपने क्षायिक सम्यग्दर्शन के प्रभाव से जान लिया । तब यही उचित समझा कि तृष्णारूपी रोग जिस मोहनीय कर्म के निमित्त से होता है उस मोहनीय कर्म का नाश किया जावे । बस, प्रापने तपस्या करने के लिये साधुपद धारण किया और जिनके सेवन से उल्टा कष्ट बढ़े उनका दूर से ही त्याग कर दिया । सारसमुच्चय में कहा है
अग्निना तु प्रदग्धानां शमोस्तीति यतोऽत्र वै ।
स्मरवन्हिप्रदग्घानां शमो नास्ति भवेष्वपि ॥ १२ ॥
भावार्थ-आग से जला हा मनुष्य तो यहां ठण्डक पा भी सकता है परन्तु काम की अग्नि से जले हुए प्राणियों को भव-भव में भी शान्ति नहीं मिलती है।
छन्द त्रोटक
तृष्णाग्नि दहत नहिं होय शमन, मन इष्ट भोगकर होय बढ़न । तन ताप हरण कारण भोगं, इम लख निजविद् त्यागे भोगं ।। ८२ ।।
उत्थानिका-विषयों को त्याग आपने क्या किया सो कहते हैंबाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्व-माध्यात्मिकस्य तपसः परिवृहरणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरस्मिन् ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्न ।।३।।
अन्वयार्थ-[त्वं] आपने [परमदुश्चरं] परम कठिन [ वाह्य तपः ] अनशनादि बाहरी तप [आध्यात्मिकस्य तपसः] आत्मीक ध्यानरूपी तप की वृद्धि के लिये [प्राचरन् । पालन किया। [ कलुपद्वयम् ध्यान ] दो मलीन ध्यानों को प्रर्थात् प्रात और रौद्र ध्याना