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________________ १५८ स्वयंभूस्तोत्र टीका हुत्वा स्वकर्मकटुकप्रकृतिश्चतोसो रत्नत्रयातिशयतेजसि जातवीर्यः। विभाजिषे सकलवेदविविनेता व्यनं यथा वियति दीप्तरुचिविवस्वान् ॥ अन्वयार्थ-['चतस्रः स्वकर्मकटुकप्रकृतिः ] अपने प्रात्मा के साथ बंधी हुई चार ज्ञानावरणादि अशुभ प्रकृतियों को हुत्वा]क्षय करके रत्नत्रयातिशयतेजसि] सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय के महान तेज से [जातवीर्यः] अनन्तवीर्य को रखने वाले [सकलवेदविधेः विनेता] सम्पूर्ण ज्ञान की विधि के प्रकाश करने वाले आप [विभ्राजिषे] शोभते हुए [यथा] जैसे [ व्यभ्रे ] मेघों से रहित [ वियसि ] प्राकाश में [ दीप्तरुचिः विवस्वान् ] तेजस्वी सूर्य शोभता है। भावार्थ---शुक्लध्यान के बल से प्रभु ने पहले मोहनीय कर्म का नाश किया जो सर्व कर्मों के बध का मूल है फिर ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय इन तीन को भी क्षय कर डाला । जिस रत्नत्रयधर्म के प्रताप से घातिया कर्मों को नाश किया वह रत्नत्रय महान अतिशय को प्राप्त होगया । क्षायिक सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान व यथाख्यात चारित्र आपके प्रकाश होगया । आप अनन्त बलो होगये । अरहन्त पद में आपने अपनी दिव्यध्वनि द्वारा पदार्थों का स्वरूप बताया उन्हीं को सुनकर गरगधरादि ने द्वादशांगरूप आगम की रचना की । अर्थात् आजकल जो जिनवाणी प्रकाशित है इसके मुलकर्ता पाप ही हो। आपने विहार करके अनेक जीवों का कल्याण किया। आप कोटि सूर्य की प्रमा से भी अधिक प्रभावान् निर्मल दिशा में शोभते भए, जिस तरह मेघों से रहित आकाश में तेजस्वी सूर्य शोभता है । ध्यान की महिमा अपूर्व है । ध्यान के बल से ही अनादिकाल के चले आये हुए कर्मरूपी पर्वत चर्ण कर दिये जाते हैं। ध्यान के बल से परहन्त ही की अपूर्व महिमा को पाते हैं। तत्त्वानुशासन में कहा है-- . त्रिकालविषयं ज्ञयमात्मानं च यथास्थितं। जानन् पश्यश्च नि:शेषमुदास्ते स तदा प्रभुः ॥ २८ ॥ अनन्तजानदृग्वीर्यवैतृष्ण्यमयमव्ययं । सुख चानुभवत्येष तत्रातींद्रियमच्युतः ।। २३६ ।। भावार्थ-तीन काल सम्बन्धी जानने योग्य पदार्थों को और आत्मा को जैसा उन्न सबका स्वरूप है वैसा ही जानते देखते हुए प्रभु सदा वीतराग रहते हैं। अनतज्ञान,अनंतदर्शन अनन्तवीर्य तथा वीतरागता इनसे झलकने वाला अविनाशी अतींद्रिय सुख को उस अरहत पद में सदा ही अनुभव करते हैं। .
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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