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तनाथ जिन स्तुति
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श्री प्राप्त हुए पीछे फिर वियोग होने पर खेद होता है । भोगते २ तृष्णा बढ जाती है तब नए नए विषयों के लिए महान प्रयास करना पड़ता है। तृष्णा के वशीभूत हो घोर परिश्रम भी करना पड़ता है । अनेक प्रकार के प्रारम्भों में व देश परदेश में गमन में उपयुक्त होना पड़ता है इसीलिए कहा है कि जहां तृष्णा है वहां सदा ही परिश्रम है व खेद है व चिन्ता
है तथा जैसे नदी में तरंगें उठा करती हैं वैसे तृष्णारूपी नदी में भय की तरंगें सदा रहती 5 हैं। इष्ट पदार्थों को कोई बिगाड़े नहीं, कोई रोगादि न हो, मरण न हो, चोर चोरी न कर
ले जाय, मरण के पीछे नरकादि न हो, कोई अकस्मात् न हो जाय इत्यादि इहलोक परलोकादि सात तरह के भय से निरन्तर अन्तरङ्ग पोड़ित रहता है । ऐसे खेद व भय से भरी हुई तृष्णारूपी नदी को अपने वीतरागमई तीव्र ध्यानरूपी तेज से सुखा डाला । जैसे ज्येष्ठ श्राषाढ़ के मास में सूर्य की किरणें बहुत तेज होती हैं, उनसे बड़ी २ नदियों का जल सूख जाता है. इसी तरह अपने आत्मध्यानरूपी सूर्य की किरणों का तेज फैलाया जिससे तृष्णा को जला डाला । तृष्णा की उत्पत्ति का कारण परिग्रह है । इसलिये आपने संन्यास धारण करके अन्तरंग बहिरंग दोनों ही प्रकार के परिग्रह का त्याग कर दिया। मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्यादि नौ कषाय ये १४ प्रकार अन्तरंग परिग्रह व क्षेत्र मकान वस्त्रादि १० प्रकार बाहरी परिग्रह का त्याग कर दिया, सर्व पर वस्तु से ममता हटाई । श्रात्मीक आनन्द का श्रद्धान किया । इन्द्रिय सुख दुःख रूप है ऐसी आस्था जमाई । अपने श्रात्मा के ज्ञान दर्शन सुख वीर्यादि गुणों को ही अपना धन जाना । श्रपनी ग्रात्मानुभूति तियाको ही रमने योग्य अपनी अर्द्धांगिनी माना । जगत में परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है। ऐसा परम त्यागभाव धारण किया और एकान्त में निवासकर धर्मव्यात व शुक्लध्यान की उत्कृष्टता को पाकर तृष्णा के मूलभूत मोहनीय कर्म को और फिर ज्ञानवरणादि कर्म को संहार कर डाला और परम उत्कृष्ट केवलज्ञानादि का तेज प्राप्त कर लिया, जो तेज मोक्षावस्था में सदा ही बना रहता है । परिग्रह ही प्राकुलता का मूल है । आपने परिग्रह को त्यागकर ही ध्यान किया । इसीलिये निराकुल ध्यान के द्वारा तृष्णा का अंश मात्र भी बाकी नहीं रक्खा । ज्ञानार्णवजी में संग-त्याग को तृष्णा के जीतने के लिए आवश्यक बताया है
प्रणुमात्रादपि ग्रन्थान्मोहग्रंथिदृढो भवेत् ।
विसर्पति ततस्तृष्णा यस्यां विश्वं न शांतये ॥ २० ॥
भावार्थ - परमाणु मात्र भी परिग्रह की मूर्छा से मोह की गांठ दृढ़ हो जाती है ।