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स्वयंभूस्तोत्र टीका मिपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यव्ययस्य निजतत्त्वं । यत्तस्मादविचलन स एव पुरुषार्थसिद्धय पायोऽयम् ।।१५।।
भावार्थ-विपरीत अभिप्राय को हटाकर व भले प्रकार अपने प्रात्मस्वरूप का निश्चय कर जो अपने स्वरूप से चलायमान न होना अर्थात् उसी में स्थिर होना सोही पुरुषार्थ की सिद्धि का अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है ।
पद्धरी छन्द
कल्मपकारी रिपु चव कषाय, मन्मथमद रोग जु तापदाय । निज ध्यान औषधी गुण प्रयोग, नाशे हूवे सवित् सयोग ।। ६७ ।।
उत्थानिका--कामदेव के रोग होने पर भोगादि की इच्छा होना सम्भव है, तब निराकुल ध्यान कैसे किया जायगा और जब ध्यान निराकुल स्थिर न होगा तब काम-रोग का नाश कैसे हो सकेगा? इस प्रश्न का समाधान करते हैं
परिश्रमाम्बुर्भयवीचिमालिनी,त्वया स्वतृष्णासरिदाऽऽय! शोषिता । प्रसंगधर्मार्कगमस्तितेजसा, परं ततो निर्वृतिधास तावकम् ॥६॥
अन्वयार्थ- (आर्य) हे साधु (त्वया) आपने (परिश्रमाम्बुः) खेदरूपी जल से भरी हई व ( भयवीचिमालिनी ) भय की तरङ्गों की माला को रखने वाली ऐसी (रवतृप्ता सरित् ) अपने भीतर जो तृष्णारूपी नदी थी उसको ( असंगद्यर्माकंगमस्तितेजसा) अन्तरङ्ग बहिरङ्ग सर्व परिग्रह का संन्यास रूप ज्येष्ठ पापाढ़ के सूर्य की किरणों के तेज से ( शोपिता ) सुखा डाला ( ततः ) इसी कारण से ( तावकम् ) प्रापको ( परं ) उत्कृष्ट ( निर्वृतिधाम ) अनन्त ज्ञानादिरूप मोक्षमई तेज प्राप्त होगया।
भावार्थ--यहां यह बताया है कि इन्द्रिय विषयों की इच्छात्पी नदी या तृप्यामापी नदी जो संसारी जीवों के भीतर वहा करती है उसमें खेदरूपी जल सदा भरा रहता है-जैसे खारी जल की भरी नदी का जल तृप्तकारी नहीं होता है, प्यास को बुझाता नहीं है, बंद को उत्पन्न करता है वैसे यह तृष्णा भोगों के भोगने से तृप्ति नहीं लाती है, उन्टा खेद ॥ श्राकुलता को अधिक उत्पन्न कर देती है । इस विषय की पुनः पुनः प्राप्ति का रोद रहता है. तथा वियोग हो जाने पर वेद बढ़ता है, जब तक प्राप्त नहीं होता है प्राकुलता रहती है।