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________________ श्री श्रनन्तनाथ स्तुति १३१ में साधकों से राग करना पड़ता और बांधकों से द्वेष करना पड़ता है । इसीलिये तीर्थकर सरीखे क्षायिक सम्यग्दृष्टी जीव भी जब तक काम भावका तथा अप्रत्याख्यानावरण कषाव का उपशम गृहस्थावस्था ही में रहकर प्रात्मध्यान के प्रताप से नहीं कर पाते तब तक thane तक भी गृह में धर्म अर्थ व काम पुरुषार्थ को साधते । जब प्रात्मध्यान के प्रताप . से प्रब्रह्म भाव को व गृह में फंसाने वाली कषाय को जीत लिया जाता है तब गृहस्थ का त्यागकर साधु का निर्भयपक्ष धारण किया जाता है जिससे कि कामभाव व कषायभाव के मूलक मोहनीय कर्म का जड़मूल से नाश किया जाय । गृहवास में वह उपाय पूर्णपने नहीं हो सकता । हे प्रभु ! प्रापने भी ऐसा ही किया । बहुत समय तक गृह में रहे, फिर नग्न दिगम्बर साधु होकर एकाग्र हो धर्मध्यान व शुक्लध्यान का ऐसा दृढ़ अभ्यास किया कि उस ध्यान की वह्नि से सोह का क्षय कर डाला । जब विषय कषाय भाव के उत्पन्न कराने चाली जड़ सर्वथा फट गई और प्राप क्षीणमोहगुणस्थान में एकत्व वितर्क शुक्लध्यान में लीन हुए फिर तो आपने एक प्रमुहूर्त की प्रांच से ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा प्रन्तराय फर्म को नाश कर डाला और एकदम से केवलज्ञानसूर्य का प्रकाश कर डाला । फिर तो श्राप सर्वज्ञ परमात्मा प्ररहन्त पूज्यनीक क्षुधातृषादि प्रठारह दोषरहित शरीर में रहते हुए भी अरहन्त परमात्मा होगए । धन्य हैं प्रभु ! आपने अपने पुरुषार्थ से ही सात्मा का कल्यारंग किया। Tere are प्रपनी स्वाधीनता पूर्णपने को प्राप्त न हो तब तक पुरुषार्थी को पुरुषार्थ करना ही चाहिये । मात्र शत्रु के पहचानने से काम नहीं चलता, उसका जड़मूल से नाश करे बिना उससे रक्षा नहीं हो सकती । प्राप इसीलिये केवल श्रद्धावान होकर ही नहीं बैठे रहे किन्तु चरित्र का पुरुषार्थ जारी रक्खा तब ही आप सफल हुए । इसीलिये हो स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कि सम्यक्त्व के पीछे भी चारित्र को पालना ही चाहिये। कहा है- लोहतिमिरापहरणे दर्शनला भादवाप्तसज्ञानः । रागद्वेषनिवृत्यं चरण प्रतिपद्यते साधुः ॥४७॥ भावार्थ--दर्शन मोहरूपी अन्धकार के चले जाने पर तथा सम्यग्दर्शन का लाभ हो जाने पर च सम्यज्ञान प्राप्त कर लेने पर साधुजन रागद्वेष को नाश करने के लिए चारित्र को पालते हैं । वही चारित्र पुरुषार्थ है । अमृतचन्द्र स्वामी ने पुरुषार्थ सिद्धच पाय ग्रन्थ मैं कहा है कि
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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