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स्वयंभू स्तोत्र टीका तदत्यक्षसुखं मोहान् मिथ्यादृष्टिः स नेच्छति । नृङ मोहस्य तथा पाकः शक्तः सद्भावतोऽनिशम् ।।५
भावार्थ-उस अतीन्द्रिय यात्मीक सुख को मोह के कारण मिथ्यादृष्टी नहीं चाहत है, क्योंकि दर्शन मोह के पाक से ऐसी शक्ति ही नहीं पैदा होती है, वह तो वैधायक सुर को ही मानता है,सम्यक्त्व के होते ही बुद्धि पलट जाती है ।
पद्धरी छन्द
चिर चितवासी मोही पिशाच, तन जिस अनन्त दोषादि राच । तुम जीत लिया निज रुचि प्रसाद, भगवन प्रनन्त जिन सत्य वाद ॥६६।।
उत्थानिका-उसको जीतकर फिर आपने क्या किया ?
कषायनाम्नां द्विषतां प्रमाथिनाम-शेषयन्नाम भवानशेषवित् । विशोषरणं मन्मथदुर्मदाऽमय,समाधिभैषज्य गुरगळलीनयत् ॥ ६७ ॥
अन्वयार्थ-(भवान्) अापने ( प्रमाथिनां ) प्रात्मा के स्वभाव को कलुषित कर वाले ( (कपायनाम्नां द्विपतां नाम) कषाय नाम वैरियों के नाम मात्र को [अपयन् ] नाय कर डाला और साथ ही [ विशोपण ] श्रात्मा को सुखाने वाले व संतापित करने वाले [मन्मयदुर्मदा मय] कामदेव के खोटे मदरूपी रोग को [ समाधिभपज्यगुणैः ] अात्मध्यान रूपी औषधि के गुणों से [ व्यलीनयत् ] शमन कर डाला-बिलकुल लोप कर डाला । ३ तरह वीतरागी होकर माप [अगेपवित्] सर्वज्ञ परमात्मा होगए ।
भावार्थ-इस श्लोक में दिखलाया है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टी होकरके आपने संतोष नहीं मान लिया । सम्यक्त्व होने के पीछे भी कामदेव का दर्प रहता है जिसके कारण लाचार होकर सम्यग्दृष्टी को भी ब्रह्मघाती अब्रह्म में फंसना पड़ता है । यह काम का दर्प प्रात्मा के शांत ब्रह्मभाव को सुखाता है-उसको अशांत कर देता है। तथा शोध मान माया लोभ ये चार वैसे भी पीछा नहीं छोड़ते । ये चारों वैरी प्रात्मभाव को सदा मैला करते हुए सम्यग्दृष्टी प्रात्मा को भी अपने स्वात्मानुभव में बाधक हो जाते हैं। उनके कारण सम्यादी हो भी राज्यपाट करना पड़ता है। परिग्रह का संचय करना पड़ता है। अभिमानमा शत्रुओं को विजय करना पड़ता है । युद्ध के लिये भी उद्यत होना पड़ता है। लौफिक काय