SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 445
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री अनन्तनाथ जिन स्तुति पाप कर्म बांधकर दुर्गति का लाभ करता है । वहां भी तृष्णा प्रताप से ही जलता हुआ जीवन विताता है । इस तरह अनन्तकाल से इस मिथ्यात्वरूपी पिशाच ने हे अनन्तनाथ ! श्रापकी श्रात्मा को भी सता रखा था । परन्तु आप बड़े वीर थे, श्रापने सच्चे स्वपर तत्त्व को पहचाना, अपने श्रात्मा को मोह पिशाच से भिन्न जाना, और यह अनुभव कर लिया कि यह आत्मा तो अनन्तज्ञान सुख वीर्य का धनी स्वभाव से परमात्मा रूप ही है । - इस स्वानुभव से आपने अपने भीतर जो श्रात्मिक श्रानन्द प्राप्त किया उसके बल से श्रापने इस मिथ्यात्व को जीत लिया । वास्तव में जब सम्यग्दर्शन का प्रकाश होता है तब उसके साथ ही स्वानुभव होता है । और तब ही प्रात्मिक श्रानन्द का अपूर्व स्वाद प्राता है । आपने तो उम मोह पिशाच को ऐसा भगा दिया और परम निर्मल क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया कि फिर वह कभी आपके पास आ नहीं सकता। आप बहिरात्मा से महात्मा या ग्रन्तरात्मा होगये, आपने अनन्त नामधारी मिथ्यात्व को जीत लिया । इसी - लिये आप सच्चे प्रनन्तनाथ होगये । पंचाध्यायी में कहा है ङ. मोहस्यान्मूर्छा वैचित्यं वा तथा भ्रमः । प्रशांते त्वस्य मूर्छाया नाशाज्जीवो निरामयः ।। ३८५ ।। भावार्थ - - दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से जीव को मूर्छा रहा करती है तथा चित्त ठिकाने नहीं रहता है, तब भ्रम बुद्धि हो जाती है, सत्य को असत्य व असत्य को सत्य मानता रहता है । जब उस दर्शन मोह का क्षय हो जाता है तब मूर्छा का भी नाश हो जाता है और यह जीव अनन्तकाल से चले आए रोग से छूटकर निरोगी हो जाता है । १२६ तत्राप्यात्मानुभूतिः सा विशिष्ट ज्ञानमात्मनः । सम्यक्त्वेनाविनाभूतमन्वयाद् व्यतिरेकतः ॥ ४२ ॥ भावार्थ - सम्यग्दृष्टि के भीतर वह श्रात्मानुभव जो ग्रात्मा का ही ज्ञान विशेष है सम्यक्त्व के साथ ही जागृत हो जाता है । इन दोनों का अविनाभाव सम्बन्ध है। जहां सम्यक्त्व है वहीं आत्मानुभुति होगी, जहां आत्मानुभूति होगी वहीं सम्यक्त्व होगा। सम्यकव के होते ही शुद्ध आत्मा का स्वाद श्रा जाता है । और तव उसकी इन्द्रिय सुख की भावना मिट जाती है | जिसने यथार्थ सुख को पाया है वह क्षणिक इन्द्रिय सुख में सुखपने को बुद्धि कैसे कर सकता है ?
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy