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श्री स्वयंभू स्तोत्र टीका
(१४) अथ अनन्तनाथ स्तुतिः ।
अनन्तदोषाऽऽशयविग्रही ग्रहो, विषङ्गवान्मोहमयश्चिरं हृदि । यतो जितस्तत्त्वरुची प्रसीदता, त्वया ततो भूभगवाननन्तजित् ।।
अन्वयार्थ- ( यतः ) क्योंकि ( त्वया ) अापने (चिरं) अनादिकाल से (हृदि ) अन्तःकर रण में ( विषंगवान् ) सम्बन्ध किये हुये व ( अनन्तदोषाशयविग्रहः ) अनन्त राग, द्वेष, मोह आदि दोषों के अभिप्राय को रखनेवाले चित्तरूपी शरीरधारी (मोहमयः ग्रहः) मिथ्यात्वमई पिशाच को ( तत्त्वरुचौ प्रसीदता ) तत्व रुचि में या सम्यग्दर्शन में प्रसन्नता के लाभ से ( जितः) जीत लिया (ततः) इसीलिये ( अनन्तजित् भगवान प्रभुः) प्राप अनन्त जो मिथ्यात्व उसको जीतनेवाले सच्चे अनन्तनाथ भगवान हो गये।
भावार्थ-यहां भी कवि ने नाम द्वारा भाव प्रकाश करके श्री अनन्तनाथ १४ वें तीर्थकर की स्तुति की है। जिसका अन्त न हो जो अनन्तकाल से चला प्राया हो उसे मिथ्यात्व कहते हैं । यह पिशाच के समान इस संसारी श्रात्मा के भीतर बैठा हुना है। इसका नाम अनन्त इसलिये भी है कि अनन्त प्रकार की शक्ति को रखनेवाले अनेक तरह के रागद्वष मोह भावों का प्रचार उस मिथ्यात्व के कारण होता है। यह पिशाच जब भीतर रहता है तब इन्द्रिय विषय व कषायों को पुष्टिपर ही इष्टि रहती है, सांसा रिक क्षणिक व अतृप्तिकारी सुख ही सुख भासता है, प्रात्मीक सच्चे सुख का पता ही नहीं होता। तब जैसे पिशाच गृसित प्रारणी उन्मत्तवत् न करने योग्य चेष्टाएं करता है पैसे यह मोही जीव अन्याय मिथ्यात्व व अभक्ष्य सेवन में लिप्त रहना है । शरीर के भीतर मोह करके स्त्री प्रनादिव सम्पत्ति के सम्बन्ध को ही अपना ऐश्वर्य मानता है। उनके वियोग से अपने को दरिद्री व दुःखो कल्पना करता है। रात दिन विषयभोग को तृष्णा में जलता रहता है । हूं २ कर पांचों इन्द्रियों के विषयों को सेबने के लिये बार
चार भागता है। जैसे मृग वन में पानी के लिये भ्रम से मटकता रहता है, परन्तु अपनी ___प्याम को शमन न करके उल्टा बढ़ा लेता है और अन्त में तड़फ तड़फकर मर जाता है।
इसी तरह यह मोही जीव विषय भोग की तृष्णा को विषय भोग पारते हए भी शमन नहीं करने उल्टा पड़ा लेता है, एक दिन परम कर जाता है। तीव रागहष मोह