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श्री विमलनाथ जिन स्तुति
१२७ या अनित्य ही है । अर्थात् या तो यह कहें कि वस्तु सर्वथा नित्य ही है या यह कहें कि वस्तु अनित्य ही है तो दोनों ही एकान्त असत्य ठहरेंगे, क्योंकि ऐसा वस्तु का स्वरूप नहीं है। वस्तु सदा बनी रहकर भी काम किया करती है-परिणमन किया करती है । इसलिये वह नित्य व अनित्य उभयस्वरूप है । हे विमलनाथ भगवान ! आप स्वयं विमल हैं, दोषरहित हैं, तब आपका कहा हुमा पर्याय का स्वरूप व उसके प्रतिपादन का स्याद्वादमय भाग दोनों ही परम माननीय, प्रमाण सिद्ध व प्रात्महितकारी हैं। जब हम अपने को नित्य मानंगे तब ही मोक्ष का उपाय कर सकेंगे। उसी समय यदि हम संसार पर्याय का नाश मानेंगे तो ही हम इसके नाश का उपाय कर सकेंगे । मोक्ष अवस्था में भी हम सदा बने रहेंगे। हम नित्य रहेंगे ऐसा मानेंगे तब ही हम मोक्ष का उपाय करेंगे । तथा हम मोक्ष में भी अकार्यकारी न होंगे। हम वहां नित्य अपने स्वभाव पर्याय में परिणामन करते रहकर नवीन २ अद्भुत प्रात्मानन्द का भोग करेगे, अर्थात स्वभाव पर्याय की अपेक्षा अनित्य रहेंगे तब ही हम मोक्ष पाना हितकर समझेगे। इस तरह यथार्थ वस्तु स्वभाव के समझ लेने से ही मोक्ष का प्रयत्न बन सकेगा व हम मोक्ष पा सकेंगे । इसलिये आपके द्वारा प्रतिपादित स्याद्वादनय का सिद्धान्त परम कल्याणरूप है ऐसा ही समझकर बड़े २ महान ऋषि आपको ही मन वचन काय से सदा नमस्कार करते हैं।
. स्थावाद ही अनेकान्त साधक है ऐसा प्रात्ममीमांसा में भी कहा है
स्थाद। दः सर्वथै कांतत्यागात् किं वृतविद्विधिः । सप्तभंगनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ।। १०४।।
भावार्थ-यह स्थाद्वाद ही सर्वथा एकान्त को हटानेवाला है कि भिन्न २ अपेक्षा से वस्तु को बतानेवाला है। यही सात प्रकार से कहा जाता है इसी से हेय उपादेय का ज्ञान होता है । यही मुख्य गौरण कथन से सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करनेवाला है।
भुजङ्गप्रयात छन्द।
यथा लोह रमनद्ध हो कार्यकारी, तथा स्यात् सुचिह्नित सुनय कार्यकारी। फदा आपने सत्य वस्तु स्वरूपं, मुमुक्षू भविक वन्दते पाप रूपं ॥६५॥