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स्वयंभू स्तोत्र टीका
जव तृष्णा बढ़ती है तो उसकी शान्ति समस्त जगत के पदार्थों से भी नहीं हो सकती । इसलिए साधुपद में परिग्रह का त्याग आवश्यक कहा है ।
सर्वसङ्गपरित्यागः कीर्त्यते श्रीजिनागमे 1
यस्तमेवान्यथा ब्रूते स होनः स्वान्यधातकः ।। २२ ।।
भावार्थ - श्री जिनागम में सर्व परिग्रह का त्याग बताया गया है । जो इससे विरुद्ध कहे कि परिग्रह सहित भी ध्यान की उत्तमता हो सकेगी वह होन भाव वाला अपना व परका घात करने वाला है । इसलिये संयमी ऐसा होता है-
विजने जनसंकीर्णे सुस्थिते दुःस्थितेऽपि वा । सर्व त्राप्रतिवद्धः स्यात्सयमी सर्वाजितः ॥ ३५॥
भावार्थ- जो संयमी परिग्रह त्यागी है वह चाहे निर्जन वनमें रहे चाहे जनसमुदाय में आवे व साता में रहे या श्रसाता में रहे वह सर्वत्र मोह से बद्ध नहीं होता है । आपने परिग्रह का त्यागकर दिया इसीलिए आपने तृष्णा का विजय किया, यह अभिप्राय है ।
पहरी छन्द
है खेद अम्बु भयगण तरंग, ऐमी सरिता तृष्णा प्रसंग
शोखी अभंग रविकर प्रताप, हो मोक्ष तेज जिनराज बाप ॥ १८ ॥
उत्थानिका - शङ्काकार कहता है कि भगवान की जो स्तुति करते हैं उनको ध लक्ष्मी देते हैं, जो निन्दा करते हैं उनको दरिद्रता देते हैं तब जिनराज में और फलवाता कर्तारूप ईश्वर में क्या अन्तर रहा ? उसका समाधान करते हैं
सुहृत्त्वयि श्री सुभगत्वमश्नुते द्विषन् त्वयि प्रत्ययवत्प्रलीयतं । भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥ ६६ ॥
अन्वयार्थ - ( प्रभो ) हे जिनेन्द्र (स्वयि सुहृत् ) आपमें जो भक्तिवान होता है अर्थात् परम प्रेम से जो आपके गुणों को स्मरण करता है वह (श्रीसुभगत्वम् ) लक्ष्मी के बल्लभपने को अर्थात् अनेक ऐश्वर्य सम्पदा को (ते) प्राप्त करता है ( स्वविहिन ) वी छापने हद करता है, प्रापको निन्दा करता है ऐसा मिथ्यादृष्टी जीव (प्रत्ययवन्) व्याकरण