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स्वयंभू स्तोत्र टीका उत्थानिका-यदि नित्यपना अनित्यपना की अपेक्षा रखेगा व अनित्यपना नित्यपने की अपेक्षा करेगा तब सर्व नय सर्व की अपेक्षा करेंगे। तब अमुक नय के द्वारा समझने योग्य पदार्थ अमुक है इस अवस्था का लोप हो जायगा । उसका समाधान करते हैं
यथैकश: कारकमर्थसिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका, नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः ॥ ६२ ॥
अन्वयार्थ-(यथा) जैसे ( एकशः कारकम् ) एक एक कारण उपादान कारण या सहकारी कारण ( अर्थसिद्धये ) किसी कार्य की उत्पत्ति के लिए ( शेषं स्वसहायकारकम समीक्ष्य ) अपने सिवाय दूसरे को अपना सहकारी कारण की अपेक्षा मानके वर्तता है । अर्थात उपादान कारण को अपने योग्य सहकारी कारणों की व सहकारी कारणों को अपने योग्य उपादान कारण की आवश्यकता है (तथैव) वैसे ही ( सामान्यविशेपमातृका नयाः ) सामान्य धर्म तथा विशेष धर्म को प्रगट करने वाले नय भी ( गुरामुख्यकल्पतः ) एकको मुख्य दूसरे को गौण कहने की अपेक्षा से ( तव इष्टा ) श्रापके मत में माननीय हैं ।
भावार्थ-~-शिष्य की शंका का समाधान यह है कि जहां जिस वस्तु में जो धर्म सम्भव है उन्हीं को बताने वाले नय हैं । नयों की प्रवृत्ति बिना नियम के स्वच्छन्द नहीं होती है। यहां दृष्टान्त दिया है कि हरएक कार्य की उन्नति के लिये उपादान व निमित्त दो कारणों की आवश्यकता होती है। मात्र एक अकेले से काम नहीं हो सकता है। यदि मात्र सुवर्ण ही हो और सहायक कारण न हो तो भी कड़ा कुण्डल ग्रादि नहीं बन सकता
और जो मात्र सहायक कारण मसाला व शस्त्र प्रादि हों परन्तु उपादान कारण सुवरणं न हो तब भी सुवर्ण का कड़ा कुण्डल नहीं बन सकता है । इसलिये उपादान को निमित्त की व निमित्त को उपादान की जरूरत है। जैसे यह व्यवस्था नियमित है वैसे ही नयों का कथन है । वस्तु में सामान्य धर्म द्रव्य की अपेक्षा से है वही विशेष धर्म पर्याय की अपेक्षा से है, वस्तु तो सामान्य विशेषात्मक है । एक को मुख्य दूसरे को गौरण करके समझाया जाता है तबही नय की आवश्यकता पड़ती है। दोनों धर्मों को एक साथ न कहा जा सकता न समझाया जा सकता है । जव सामान्य को समझाते तव विशेष गौण हो जाता है । जब विशेष को समझाते तब सामान्य गौरण हो जाता है। वस्तु जैसी नियमाप स्वभाव से है वैसा ही बतलाना नयों का काम है। ऐसा प्रापका सिद्धान्त हे विमलनाय भगवान ! परम हितकारी है । ऐसा हो स्वामी ने प्राप्तमीमांसा में बताया है