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श्री विमलनाथ स्तुति
११६ वस्तु अनित्य है ऐसा मान लेने से नित्य व अनित्य दोनों धर्मों की सत्ता सिद्ध होती है । अपेक्षा न मानो व सर्वथा नित्य ही मानो या सर्वथा अनित्य ही मानो तो दोनों ही स्वभावों का खण्डन होजाता है। परन्तु अपेक्षा सहित मानने से दोनों ही धर्म बाधा रहित टिकते हैं । तथा जो भिन्न २ अपेक्षा से दोनों धर्म मानते हैं उनका भी हित होता है। वे स्वयं मोक्षमार्ग साधन कर सकते हैं तथा जिनको समझाया जाता है वे भी ठीक समझकर अपना हित कर सकते हैं। इसलिये विमलनाथ ! आपका ही तत्त्व मल रहित निर्दोष है। इसी 'बात को स्वामी ने प्राप्तमीमांसा में बताया है--
प्रनपेक्षे पृथकत्वैक्ये ह्यवस्तुद्वय हेतुतः । तदेवैक्य पृथक्त्वं च स्वभेदः साधनं यथा ।। ३३ ।। सत्सामान्यात्त सर्वेक्यं पृथक् द्रव्यादिभेदतः । भेदाभेदविवक्षायामसाधारणहेतुवत् ॥३४॥
भावार्थ--एकत्व व अनेकत्व ये दो स्वभाव परस्पर अपेक्षा बिना सिद्ध नहीं हो सकते, दोनों ही वस्तु-धर्म न रहेंगे यदि सर्वथा माने जावे । क्योंकि वस्तु सामान्य विशेष रूप है । यदि विशेष नहीं है तो सामान्य कहां रहेगा और यदि सामान्य नहीं है तो विशेष कहां रहेगा। आम के वृक्ष में वृक्षपना सामान्य ग्राम की विशेषता सहित है, इसी तरह श्राम को विशेषता में वृक्षपना सामान्य है। एक ही वस्तु समान धर्म रखने से सामान्य है वही विशेष धर्म रखने से विशेष है। हरएक द्रव्य सदा बना रहता है यही उसकी सत्ता सामान्य है तथा हरएक द्रव्य पर्याय सहित या विशेष सहित होता है यही उसका भिन्न २ पना व अनेकपना या विशेषपना है, जैसे साधन साध्य आदि से भिन्न भी है और अभिन्न भी है । सत्ता की समानता सर्व विश्व में होने से सर्व विश्व एकरूप है,वही द्रव्य की गुण को पर्याय की भिन्नता से अनेकरूप है । जैसे जो असाधारण साधन होता है वह साध्य से भेदरूप भी है व अभेदरूप भी है । जीव उपयोग लक्षण है। यहां उपयोग साधन जीव में ही मिलता है इसलिए अभेद है। परन्तु नाम व लक्षण की अपेक्षा भेद है । जीव में उपयोग के सिवाय और भी गुण हैं,उपयोग उनमें से एक गुण है । इसलिए परस्पर अपेक्षा सहित भिन्न२ नय परम हितकारी हैं। अन्यथा भ्रमरूप है, कुतत्व हैं, कार्यकारी नहीं है-अनेकान्त स्वरूप सिद्धान्त ही हितकारी है।
भुजङ्गप्रयात छन्द नित्यत्व प्रनित्यत्व नयवाद सारा, अपेक्षा विना प्रापपर नाशकारा। अपेक्षा सहित है स्वपर कार्यकारी, विमलनाथ तुम तत्त्व ही अर्थकारी।'
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