SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 434
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वयंभू स्तोत्र टीका ( १३ ) श्री विमलनाथ स्तुतिः य एव नित्य-क्षरिणकादयो नया, मिथोऽनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः,परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः ।। ६१ ॥ अन्वयार्थ-( यः एव नित्यक्षणिकादयः नयाः ) जो यह नित्य अनित्य सत् असत् ग्रादि एकांतरूप दृष्टिये हैं वे (मिथोऽनपेक्षाः ) परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा न रखती हुई अर्थात सर्वथा एकान्त व स्वतन्त्र रहती हुई ( स्वपरप्रणाशिनः ) अपने को व दूसरों को नाश करने वाली हैं। अथवा न कहने वाले का भला करने वाली हैं न समझने वाले का भला करने वाली हैं। परन्तु ( ते मुनेः विमलस्य ) आप प्रत्यक्षज्ञानी व सर्व दोषरहित विमलनाथ भगवान के दर्शन में (ते एव) वे ही नित्य अनित्य प्रादि दृष्टिये (परस्परेक्षाः) एक दूसरे की अपेक्षा रखती हुई ( स्वपरोपकारिणः ) अपना व दूसरों का उपकार करती हुई (तत्त्वं) तत्व स्वरूप या यथार्थ हैं । भावार्थ--यहां यह बताया है कि दुर्नय मिथ्या होते हैं व सुनय सत्य होते हैं। नय उसे ही कहते हैं जो किसी अपेक्षा से वस्तु के एक स्वभाव को झलकावे तव ही उसमें अन्य स्वभाव हैं इसका सर्वथा निषेध न करे। जैसे यह कहा कि "स्यात नित्यं" इससे यह सिद्ध हना कि किसी अपेक्षा से वस्तु नित्य है तब अन्य अपेक्षा से अन्य रूप भी है। हरएक नय का कथन अपेक्षा सहित होता है । यदि सर्वथा ही एकांत से नयवाद को स्वतन्त्र मान लिया जावे अर्थात् सर्वथा नित्य ही वस्तु है अथवा सर्वथा अनित्य ही वस्तु है, तव न नित्य की सिद्धि है और न अनित्य की सिद्धि है, दोनों का ही नाश है; क्योंकि वस्तु का स्वभाव ही एक ही नित्य व अनित्यरूप है। जो वस्तु को नित्य ही मान लेते हैं उनका भी नाश हो होगा; क्योंकि वे संसार से मुक्त नहीं हो सकते। तथा जो अनित्य ही मानते हैं उनका भी नाश होगा; क्योंकि वे रहेंगे ही नहीं। तथा जिनको वे ऐसा उपदेश करते हैं उनका भी बिगाड़ ही होगा । परन्तु हे विमलनाथ भगवान ! अापका सिद्धांत ऐसा प्रौढ़ है कि उसके अनुसार नयों का स्वरूप मानने से सबका कल्याण होता है। हरएक नय दूसरे नय की अपेक्षा रखता है। जहां नित्यपना है वहां नित्यपना अवश्य है । नित्य अनित्य की अपेक्षा रसता है अनित्य नित्य की अपेक्षा रखता है। ये दोनों सर्वथा स्वतन्त्र बन ही नहीं सकते। पयोंकि दोनों ही विरोधो धर्म को रखने वाले पदार्थ हैं। पर्याय को पलटने की अपेक्षा
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy