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श्री विमलनाथ स्तुति
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मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकांततास्ति नः । निरपेक्षा नया मिध्या सापेक्षा वस्तुनोऽर्थकृत् ॥ १०८ ॥
भावार्थ - नित्य श्रनित्य श्रादि अनेक धर्म यदि मिथ्या हों तो मिथ्या धर्मों का समूह भी मिथ्या हो । परन्तु श्रापके मत में मिथ्यैकांतला का दोष नहीं होता है; क्योंकि जो यों का कथन बिना अपेक्षा हो तो मिथ्यामई एकांत का दोष आवे । प्रर्थात् तव ही वस्तु एकांशी ही सर्वथा सिद्ध हो, जो कि बात सत्य है, परन्तु यदि नयों का कथन अपेक्षा सहित हो तो वह बिलकुल वस्तु स्वरूप है व यथार्थ है तथा वे नय अवश्य प्रयोजन भूत हैं । प्रर्थात् अनेक स्वभावमई पदार्थ को सिद्ध करने वाले हैं । स्यात् शब्द का प्रयोग न हो या कथंचित् का भाव न हो और सर्वथा सामान्य रूप ही या सर्वथा विशेष रूप ही पदार्थ को माना जाय तो सर्व ही कथन मिथ्या होजावे । क्योंकि वस्तु तो सामान्य विशेषरूप है ।
भुजङ्गप्रयात छन्द
यथा एक कारण नहीं कार्य करता, सहायक उपादान से कार्य सरता ।
तथा नय कथन मुख्य गौण करत हैं, विशेष वा सामान्य सिद्धी करत है ॥
उत्थानिका -- यहां कोई शंका करते हैं कि सामान्य व विशेष धर्मों की सिद्धि किसी प्रमारण से नहीं होती है तब नय किस तरह उन धर्मों को बताने वाले होंगे ? उसी का समाधान करते हैं---
परस्परेशायद लगतः, प्रसिद्ध सामान्यविशेषयोस्तव ।
समग्नताऽस्ति स्व-परावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धि-लक्षणम् ||६३।।
अन्वयार्थ -- (तथ ) प्रापके मत में ( परस्परेक्षाऽन्वय भेदलिङ्गतः) परस्पर एक दूसरे ..की पेक्षा से जो सामान्य तथा विशेष का ज्ञान होता है इसी से हो ( प्रसिद्ध सामान्यविशेषयोः } भले प्रकार सिद्ध होने वाले सामान्य तथा विशेष धर्मों की ( समग्रता ) पूर्णता या वर्तमानता एक वस्तु में (श्रस्ति ) है ( यथा ) जैसे [ भुवि ] इस जगत में [ वुद्धिलक्षणम् ] ज्ञानस्वरूप [ प्रमाणं ] जो प्रमाण है वह [ स्वपरावभासकं ] अपने और पर को दोनों को झलाने वाला है ।
भावार्थ-यहां यह बताया है कि हरएक वस्तु में सामान्य तथा विशेष दोनों ही जानते स्वभाव एक ही समय में विद्यमान हैं । यह बात ज्ञान ते सिद्ध होती है । जब हम यह