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श्री वासुपूज्य जिन स्तुति
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विमित्त कारण है । श्री जिनेन्द्र का दर्शन भिन्न २ अपेक्षा से ही कहा गया व समझा गया परम कल्याणकारी होता है ।
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आत्मानुशासन में श्री गुरणभद्राचार्य कहते हैं
परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः । तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः ॥ २३ ॥ भावार्थ- परिणाम को ही मुख्यता से पुण्य तथा पाप बंध का काररण आचार्यो कहा है इसलिये पाप भाव का नाश व पुण्य भाव का लाभ करना उचित है ।
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छन्द ।
वस्तु बाह्य है निमित्त पुण्य पाप भाव का, है सहाय मूलभूत अन्तरंग भाव का। वर्तता स्वभाव में उसे सहायकार है, मात्र अन्तरंग हेतु कर्म बघकार है ।। ५६ ।। उत्थानिका - यह सब
कहते हैं
भिन्न २ प्रपेक्षा से कथन जैन मत में ही घटता है ऐसा
बाह्यतरोपाधि- समग्रतेयं, कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । नैवान्यथा मोक्ष - विधिश्च पुंसां, तेनाऽभिवन्द्यस्त्वमृषिर्बुधानाम् ||६|
पार्थ - (ते) आपके मत में [ इयं ] यह [ वाह्य तरोपाधिसमग्रता ] बाहरी और अंतरंग कारण की पूर्णता [ कार्येषु ] कार्यों के सम्पादन करने में ( द्रव्यगतः स्वभावः ) द्रव्य में प्राप्त हुआ स्वभाव है [ पुंसां ] संसारी जीवों के लिये [ मोक्षविधिः च ] मोक्ष का उपाय भी [ अन्यथा नैव ] बाहरी और ग्रन्तरंग दोनों साधनों के सिवाय अन्य रूप से नहीं हो सकता । [ तेन ] इसीलिये [ त्वं ] आप [ ऋषिः ] परम ऋद्धि से संम्पन्न परम प्रभु [ प्रधानाम् ] गणधर देव आदि बुद्धिमानों के लिये [ श्रभिवन्द्यः नमस्कार करने के योग्य हैं ।
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भावार्थ - श्री समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि है वासुपूज्य भगवान् ! प्रापने यथार्थ वस्तु का स्वरूप जैसा है वैसा बताया है. इसीलिये गरणधरदेव आदि बड़े २ महान साधु च विद्वान को ही मन, वचन, काय से नमस्कार करते हैं ।
मापने यह बहुत ही यथार्थ बताया है कि हरएक द्रव्य से कार्य तब ही वन