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________________ ११६ वृ० स्वयंभूस्तोत्र टीका । । दे सकता है जब बाहरी व अन्तरंग कारण हों अर्थात् जब निमित्त व उपादान दोनों कारणों की पूर्णता हो । यही हर एक द्रव्य के द्वारा काम होने का वस्तु स्वभाव है। मिट्टी में घट बनने की शक्ति है, मिट्टी घट के लिये उपादान या अन्तरंग कारण है तब चाक प्रादि बाहरी सहायकों की पूर्णता निमित्त कारण है। दोनों कारणों के बिना घट नहीं बन सकता है। कपड़ा शुद्ध करना है, उपादान कारण स्वयं कपड़ा है, निमित्त कारण मसाला व मलने वाला है दोनों कारण होने पर ही कपड़ा स्वच्छ होगा । कपड़ों में उजले होने की शक्ति है तब ही निमित्त कारण मदद देता है । कोयले में उजले होने की शक्ति नहीं हैं । इसलिये उनके लिये बाहरी मसाला निरर्थक होगा । तथा बाहरी मसाला न हो मात्र मैला कपड़ा हो तो भी वह कपड़ा साफ नहीं हो सकता है । उपादान व निमित्त के बिना कोई परिरगमन या पर्याय या काम हो ही नहीं सकता इसलिये तो आपके जैन सिद्धान्त में यह बताया है कि जीव व पुद्गलों के मुख्य चार कार्यों में चार मुख्य द्रव्य सहकारी काररण हैं । उनके हलन चलन में धर्म द्रव्य, उनकी स्थिति में धर्म द्रव्य, उनके अवकाश पाने में आकाश द्रव्य, उनके पर्याय पलटने में काल द्रव्य निमित्त हैं । 1 जब ऐसा नियम है कि दो कारणों के बिना कार्य नहीं होता है तब मोक्षप्राप्ति के लिये भी दोनों ही कारणों की आवश्यकता है सो ही आपने बताया है कि अन्तरंग कारण तो परिणाम हैं, शुद्ध भाव है, उनकी प्राप्ति के लिए वे सर्व कारण निमित्त है जो शुद्ध भाव में साधक हैं अर्थात् शुद्ध भाव में बाधक परिग्रह व प्रारम्भ को चिन्ता है व इन्द्रिय विषय का सम्बन्ध है व गृहस्य का वास है । इसीलिये आपने बताया है कि जो सर्व परिग्रह त्यागकर व एकान्तवासकर चिन्ता छोड़कर वैराग्य के निमित्तों में रहकर अभ्यास करेगा उस ही के कर्म संहारक शुक्लध्यान उत्पन्न होगा । गृहस्थों के लिये भाव शुद्धि में निमित्त कारण श्री जिनेन्द्र की मूर्ति का दर्शन व अष्टद्रव्य से पूजन बड़ा भारी प्रवल निमित्त कारण है। जब भक्ति का निमित्त गृहस्थी मिलाएगा और साथ में अपने भावों को जोड़ेगा तो उसे अवश्य शुद्धभाव या यथासंभव विशुद्धभाव की प्राप्ति होगी वीतराग सर्वज्ञ की पूजा एक ज्ञानवान भक्त के हृदय में वीतरागता मिश्रित शुभभाव को उत्पन्न करती है । इसी से जितने अंश वीतरागता होती है उतने कर्मो को निग हो जाती है । जितने अंश शुभ रागभाव होता है उतने श्रंश महान पुण्य का बंध हो जाता है । प्रतएव अपने भावों की शुद्धि के लिये निमित्त कारणों का सम्बन्ध अवश्य मिलाना 1
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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