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श्री वासुपूज्य जिन स्तुति
को ऊँचा बना सकते हैं। यहां प्राचार्य के कहने का तात्पर्य यह है कि भक्तजनों की द्रव्य पूजा उनके लिये गुणकारी है। अतएव कर्तव्य है। श्री अमितगति महाराज सुभाषितरत्नसंदोह में गृहस्थ का धर्म बताते हैं---
विचित्राशखराधार विचित्रध्वजमण्डितम् । विधातव्यं जिनेन्द्राणां मन्दिरं मन्दिरोपमम् ।।८७३॥ यात्तिष्ठति जैनेन्द्र मन्दिर धरणीतले । धर्मस्थिति. कृता तावज्जैनसौधविधायिना ।।८७५॥ यः करोति जिनेन्द्राणां पूजनं स्तवनं नरः । स पूजामाप्य नि.शेषां लभते शाश्वती श्रियम् ।।८७७॥
भावार्थ-विचित्र शिखर सहित ध्वजा मंडित परम सुन्दर मन्दिर श्री जिनेन्द्र बिराजमान करने के लिये बनवाना चाहिये । जब तक पृथ्वी में जिन मन्दिर रहेगा तब तक मन्दिर के बनवाने वाले ने धर्म का मानों झंडा ही गाड़ दिया है। जिन मन्दिर
में जो कोई भक्तजन अभिषेक व पूजन करता है वह स्वयं पूजा का पात्र होकर परम्परा .. अविनाशी लक्ष्मी को पा लेता है।
पूजनीक देव आप पूजते सुचावसे । बांधते महान पुण्य जन विशुद्ध भावसे ।। अल्प प्रष न दोषफर यथा न विष कणा करे । शीत शचि समुद्र नित्य शुद्ध ही रहा करे ॥५८॥
. उत्थानिका-शंकाकार कहते हैं कि मुनियों के पास तो सामग्री होती नहीं है वे जिनेन्द्र की पूजा कैसे करेंगे? इसका समाधान करते हैं
यद्वस्तु बाह्य गुणदोषसूते-निमित्तमभ्यन्तरमूलहेतोः । .. अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूत-मभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते ॥५६।।
अन्वयार्थ-( यत् बाह्य वस्तु ) जो बाहरी अक्ष: पुष्पादि पदार्थ हैं वह [ गुणदोषसूतेः । पुण्य तथा पाप भाव की उत्पत्ति का [निमित्तं] निमित्त कारण है । [अध्या. त्मवृत्तस्य] जो अंतरंग अपने शुभ व अशुभ भावों में वर्त रहा है उसके [अभ्यंतरमूलहेतोः] पुण्य पाप बंध के अंतरंग मूल शुभ व अशुभ भावरूपी कारण के लिये [तत् अंगभूतं] वह बाहरी पदार्थ मात्र सहकारी कारण हैं । [ अभ्यंतरं केवलं अपि ते अलं ] श्रापके मत में तो वास्तव में अंतरंग शुभ व अशुभ भाव मात्र ही पुण्य व पाप बंध करने को
समर्थ हैं।