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________________ ११२ वृ० स्वयंभूस्तोत्र टीका है जैसे शीत मिष्ट जल के समुद्र में यदि एक विष की करणी डाली जावे तो वह उस जल को विषमई नहीं कर सकती है-उसमें समा जायगी। इसी तरह वह अति अल्प पाप महापुण्य बंध के सामने कुछ भी गिनती में नहीं है। जो लोग गृहस्थ होकर भी प्रारम्भी अहिंसा के भय से द्रव्य पूजा नहीं करते हैं वे अपना महान अलाभ करते हैं; क्योंकि मात्र भाव पूजा में मन अधिक काल तक जुड़ नहीं सकता है। जैसे बिना बाजे का साथ हुए गवैये का मन देर तक गाने में नहीं जुड़ सकता है इसी तरह विना द्रव्यादि सामग्री का आलम्बन हुए मन देर तक भक्ति में नहीं लग सकता है। तब वह समय जो द्रव्य पूजा के द्वारा भक्ति करने में जाता वह घर में व दुकानादि में जाकर विशेष प्रारम्भ जनित कार्यों में लग जाता है। तब अधिक पाप का वध होता है उसी समय को यदि वह द्रव्य पूजा में लगाता तो अत्यन्त अल्प पाप के साथ बहुत अधिक पुण्य का लाभ करता। गृहस्थ का जितना व्यवहार धर्म है वह प्रारम्भी हिसा से खाली नहीं है । तथापि वह हिसा हिंसा के हेतु से नहीं है, मात्र विशेष किसी प्रयोजन के लिये है जो प्रयोजन उस प्रारम्भ के बिना होना अशक्य है। जैसे धर्म साधन, सामायिक पाठ, स्वाध्याय, पूजा भक्ति करने के लिये मन्दिर व उपाश्रय व धर्मशाला बनाना व सरस्वती भवन तैयार कराना व पाठशाला का मकान बनवाना व मकान में बैठने को पाटा, चौकी, फर्श, चटाई, आसन लाना बिछाना, व शास्त्र रखने को चौकी बनवाना, शास्त्र लिखना लिखाना, मुद्रित कराना प्रादि २ ये सब प्रारम्भ हैं । उनमें कुछ न कुछ प्रारंभी हिंसा होती है । परन्तु धर्म साधन विशेष होता है, परिणामों की उज्ज्वलता का विशेष कारण होता है । इसलिये हर एक बुद्धिमान को करना ही उचित है । गृहस्थ का मन इतना वैशाग्यमय नहीं है कि वह मात्र साधु के समान सामायिक करके देर तक परिणामों को उज्ज्वल रख सके। उसे चंचल मन को रोकने के लिये पूजा, पाठ, स्वाध्याय व सामायिक सर्व ही कार्य बताए गए हैं जिससे विशेष लाभ हो । गृहस्थ व्यापारी होता है, जैसे व्यापार में थोड़ा पैसा खर्च करके विशेष लाभ उठाया जाता है वैसे गृहस्थ धर्म में थोड़ा आरम्भ करके भी विशेष लाम उठाया जाता है । जो थोड़ो हानि के भय से विशेष लाभ नहीं लेते हैं उनको मूरखं व कायर व मालसी कहा जता है। इसलिये श्री जिनेन्द्र की द्रव्य पूजा भक्तों के भावों को उन्नति रूप करने में अत्यन्त सहायक है । इसलिये दोपरूप नहीं है। किन्तु परम गुणकारी है। जिनको एफेन्द्रियों की प्रारम्भ जनित हिंसा का त्याग नहीं है वे ही पूजा की सामग्री का निमित्त मिलाते हैं। श्रारम्भ जनित हिंसा के मया त्यागी है वे बहत उदासीन रहते हैं। वे व्यापारादि के भो त्यागी होते हैं। वे मात्र भाव पूजा में ही अपने परिणामों
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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