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श्री वासुपूज्य स्तुति
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| वे स्तुतिकर्ता व निदाकर्ता स्वयं ही अपने परिणामों से अच्छा या बुरा फल पा
लेते हैं ।
छन्द ।
वीतराग हो तुम्हें, न हर्ष भक्ति करसके; वीत द्व ेष हो तुम्हीं, न क्रोध मंत्रु हो सके । सारगुरण तथापि हम कहें महान भाव से, हो पवित्र चित्त हम हटें मलीन भाव से ॥५७ :
उत्थानिका -- अब शंका करते हैं कि प्रापको जो प्रष्ट द्रव्य का आरम्भ करके पूजते हैं उनको तो अवश्य कुछ पाप का बंध होता ही होगा इसका समाधान करते हैं
पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य, सावंद्यलेशी बहुपुण्यराशौ ।
दोषाय नालं करिणका विषस्य, न दूषिका शीत शिवाम्बुराशौ । ५८ || श्रन्वयार्थ--[ त्वा पूज्यं जिनं ] प्राप पूजने योग्य जिन भगवान की श्रर्चयतः ] पूजा करते हुए [ जनस्य ] किसी भक्तजन को ( बहुपुण्यराशौ ) बहुत पुण्य का ढेर प्राप्त होता है उसमें ( सावद्यलेश: ) आरम्भ जनित पाप का कुछ अंश ( दोषाय अलं न ) भक्त को दोषी नहीं बना सकता है ( शीतशिवाम्बुराशौ ) जिस समुद्र में ठंडा व सुखदाई जल भरा है उसमें (विषस्य करिणका ) विष की एक करणी [ दूषिका न ] जल को विषमई नहीं कर सकती है ।
भावार्थ - - हे जिनेन्द्र ! जो भक्तजन आपकी द्रव्य पूजा करते हैं अर्थात् भावों को जोड़ने के लिये सुन्दर पूजा के उपकरण व जल चंदनादि सामग्री एकत्र करते हैं व गा बजाकर तन्मय होकर प्रापकी स्तुति करते हैं, तब इन पूजा सम्बन्धी प्रारम्भ करते हुए जो कुछ एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा होती है वह इतनी अल्प है कि नाम मात्र है । परन्तु उम प्रारम्भ के द्वारा जो पूजा करते हुए भावों की विशुद्धि होती है व उससे जो समय समय महान् पुण्य का बन्ध होता है वह तो एक समुद्र के समान होता है। जहां कोटि गुणा लाभ हो व कुछ हानि हो तो बुद्धिमानों को वह कार्य गुरण रूप ही भासता है दोष रूप नहीं । वे टूट लाभ के लिये कुछ हानि तह करके भी वर्तन करते हैं । पूजा के प्रारम्भ में यत्नाचार से दया भाव से वर्तन करते हुए त्रस जन्तुओं की हिंसा का तो अल्प भी पाप नहीं होता है। सचित्त जल को ग्रचित्त करते हुए व जल से सामग्री धोते हुए प्रारम्भ जनित एकेन्द्रियों की हिंसा का अत्यन्त अल्प पाप बंधता है । वह इतना कम