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श्री स्वयंभू स्तोत्र टीका
हमारे ( चित्तं ) मनको [ दुरितांजनेभ्यः ] पापरूपी मैलों से [ पुनाति ] पवित्र कर ही देता है ।
भावार्थ--यहां यह बात दिखलाई है कि जब हे वासुपूज्य स्वामी ! श्राप बिलकुल राग द्वेष शून्य हैं तब हम यदि आपकी पूजा करें तो आप कुछ भी प्रसन्न होकर हमको कुछ नहीं देंगे, फिर हम अापकी पूजा ही क्यों करें व महान पुरुष भी आपको क्यों पूजा करते हैं ? इसका समाधान यह है कि वास्तव में प्रभु तो बोतराग हैं, उनको कोई मतलब नहीं है कि कोई भक्ति करो, या पूजन करो या स्तवन करो। हमारी भक्ति उनके श्रात्मा में हमारे प्रति रागभाव उत्पन्न नहीं करा सकती है और यदि कदाचित् कोई आपसे विमुख होकर आपकी निन्दा करे तो आपमें उसपर द्वषभाव नहीं उत्पन्न हो सकता। क्योंकि प्रापने क्रोधादि कषायों का तो नाश हो कर दिया है। फिर स्तुतिकर्ता व निन्दाकर्ता को क्या फल होगा? तो इसका उत्तर यह है कि जो भगवान के पवित्र गुणों का स्मरण करेगा उसका भाव पवित्र हो जायगा, वीतरागो के स्तवन से वीतराग हो जायगा। तन रागदप मिटाने से पापों का क्षय होगा व अतिशयरूप पुण्य का बन्ध होगा, जो साताकारी संयोगों में प्राप्त करेगा । तथा जो निन्दा करेगा उसका भाव द्वष से पूर्ण होकर बुरा हो जायगा। वह अपने भावों से पाप का बन्ध कर लेगा। आप तो न किसी पर राग करते हैं न हप करते हैं। तथापि आपके भक्त तो मोक्षमार्ग पर चलकर भवसागर से पार हो जाते हैं व जो प्रापकी निन्दा करते हैं वे स्वयं पाप बांधकर भवसागर में गोता लगाते रहते हैं । इस लिये आपको पूजा तो मेरे लिए परम हितकारी ही है। जैसे शास्त्र स्वयं कुछ ज्ञान नहीं देते, परन्तु पढ़ने वाला प्रेमी उसमें से ज्ञान का विकास करही लेता है। उसी तरह प्रापका दर्शन पूजा स्तवन भक्त का परम हित करता है, उसे पवित्र बना देता है । यही भाव पात्रकेसरी स्तोत्र में झलकाया है--
ददात्यनुपम सुख स्तुतिपरेवतुष्यन्नपि । क्षिपस्य कुपितोऽपि च अवमसूयकान्दुगता। नवेश ! परमेष्ठिता राव विरुद्धयते यद् भवान् । न कुप्यति न तुप्यति प्रकृतिमाश्रितो मध्यमान १८॥
भावार्थ---जो आपकी स्तुति करते हैं उन पर प्राप प्रसन्न हए बिना ही उनको अनुपम सुख देते हैं व जो आपकी निंदा करते हैं उन पर क्रोध न करते हुए श्राप उर्ग दुर्गति में पटक देते हैं । हे भगवन् ! तो भी ग्रापके परमेष्टी पद में कोई विरोव नहीं प्राता है । क्योंकि ग्राप वीतराग स्वभाव में लवलीन रहते हैं। न शोध करते है न प्रसन्न होने