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श्री शीतलनाथ जिन स्तुति उठाया और परिणामों में परम निर्मल क्षायिक सम्यग्दर्शन के प्रताप से उत्कृष्ट शान्त भाव को धारण किया व कषायों को और नाना प्रकार क्रियाकाण्ड के साधक रूप मन वचन फाय की क्रिया को हो रोक दिया अर्थात् अपने उपयोग को मन वचन काय की प्रवृत्ति से निरोध कर उसे एक पाल्मा में ही तन्मय कर दिया और इसी पुरुषार्थ से संसार के कारणभूत कर्मों का नाश किया और अनन्त सुख से पूर्ण वीतरागता का लाभ कर लिया। वास्तव में जो आत्मा के हितकर्ता होते हैं वे एक प्रात्मध्यान का ही पुरुषार्थ करते हैं । प्रात्मध्यान हो परमानन्द का दाता है । सार समुच्चय में कहा है--
प्रातरौद्रपरित्यागात् धर्मशक्ल समाधयात् । जीव प्राप्नोति निर्वाणमनन्तसुखमच्यतम्।।२२६।
भावार्थ- प्रात व रौद्र ध्यान के त्याग करने से व धर्म तथा शुक्लध्यान के आश्रय करने से यह जीव नन्त व अविनाशी मानन्दमई निर्वाण को पा लेता है ।
निर्यमत्ये सदा सौख्यं संसार स्थितिच्छेदनम । जायते परमोत्कृष्टमात्मनः संस्थिते सति ।।३२५॥
भावार्थ---जो ममता रहित होकर अपने ही प्रात्मा में रमण करते हैं, उनको ___ संसारवास का छेदक परम उत्कृष्ट सुख सहा अनुभव में माता है।
अग्विणी छन्द
पुत्र धन और परलोक की चाहकर, मूढजन तप करें प्रापको दाहकर ।
प्रापसे तो जरा जन्मके नाश हित, सर्व किरिया तजी शान्तिमयभावहित ।।
उत्पानिका--भगवाल के तुल्य अन्य भज्ञानरेजन भी हो सकते हैं उसके लिये समाधान में कहते हैंस्वमुत्तमज्योतिरजः क्व निर्वृतः,क्व ते परे बुद्धिलवोद्धवक्षताः । ततः स्वनिश्रेयसभावनापर-बुधप्रवेजिन ! शीतलेड्यसे ॥५०॥
अन्वयार्थ--( जिन शीतल ) हे श्री शीतलनाथ जिनेन्द्र ! ( क्व ) कहां तो । त्वम् ] पाप [ 'उत्तमज्योतिः | परमोत्कृष्ट ज्ञान के धारी तथा [निवतः] परम सुखी और [ २ ] कहाँ ( ते परे ) आपसे भिन्न दूसरे [ बुद्धिलवोद्धव-क्षताः ] थोड़ी सी वृद्धि के गर्व से नाश होने वाले । बहुत बड़ा अन्तर है। [ ततः ] इसीलिये | स्वनिः श्रय