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________________ ६८ स्वयंभू स्तोत्र टीका सभावनापरैः ] अपने मोक्ष सुख की प्राप्ति की भावना में तत्पर [ बुधप्रवेकैः ] ज्ञानी गणधरादि सावुजन व सम्यग्दृष्टि मानव [ ईड्यसे ] आपको ही पूजते हैं व श्रापको हो स्तुति करते हैं व प्रापका ही ध्यान करते हैं । । भावार्थ - यहां यह बतलाया है कि पूजने योग्य वही हो सकता है जो सर्वज्ञ हो तथा जो पूर्ण वीतरागी व श्रानन्दमई हो जो रागद्वेष से रहित होगा उसी का ग्रात्मा वीतराग होकर के मोह से स्वच्छ होगा, तब उसके ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म का तथा अन्तराय कर्म का नाश हो जाता है तब ही वह पूर्ण व अनन्त व श्रविनाशी सहज स्वभाव रूप केवलज्ञान को प्राप्त हो जाता है तथा वही पूर्ण सुखी भी हो जाता है । वही अरहन्त अवस्था में शरीर सहित होने से अपनी वारणी का प्रकाश कर सकता है । उसकी वारणी में जो पदार्थों का प्रकाश होता है वह यथार्थ ही होगा, क्योंकि जो सर्व द्रव्यों की सर्व पर्यायों को व उनके सर्व गुणों को जानेगा वह कभी असत्य नहीं कह सकता है । तथा वीतरागी होगा, वह निःस्वार्थी होगा, वह जानकर कभी अन्यथा न कहेगा । इसीलिये श्री प्ररहन्त का उपदेश हुआ कि मोक्षमार्ग यथार्थ है व जीवों को परमानन्द का दाता व उनको शुद्ध करनेवाला है । यहां स्वामी कहते हैं कि कहां तो ऐसे श्री शीतलनाथ भगवान हैं, कह उनसे विरुद्ध वे जो अल्प ज्ञानवारी होकर अपनी कल्पना से धर्म का स्वरूप बताते हैं और वह प्रमारण में नहीं उतरता है न उससे एक बुद्धिमान विचारशील को संतोष होता है, तब निष्पक्ष विचारशील बड़े-बड़े भेदज्ञानी पुरुष गणधरादि व अन्य साधु व अन्य तत्त्वज्ञान प्रेमी गृहस्थ किस तरह संतोष पा सकते हैं व किस तरह श्रापको छोड़कर दूसरे को यथार्थ व कल्याणकारी वक्ता मान सकते हैं ? अर्थात् कभी भी नहीं मान सकते । इसलिये स्वामी कहते हैं कि जैसे महान गणधरादि पुरुषों ने श्रापकी स्तुति की है वैसे मैं भी पापकी ही स्तुति करता हूं । श्रापके बिना मुझे अन्य वक्ता में संतोष नहीं होता है। श्री श्रमितगति आचार्य सुभाषित रत्न संदोह में प्राप्त का स्वरूप बताते हैं- वच्छत्यङ्गी समस्त सुखमदवरतं कर्मविध्वंसतन्तचारित्रात्स्यात्प्रबोधाद् भवति तदमलं स श्रुतादाप्तततत् निर्दोषात्मा सदोपा जगति निगदिता द्वेोपरागादयोऽय | ज्ञात्वा पूत्यै सदोषान् विकलितविपदे नाश्रयन्त्यस्ततन्द्राः ||६४२ ।। भावार्थ--हरएक संसारो प्राणी पूर्ण सुख को चाहता है । वह पूर्ण सुख कर्मों के नाश से ही होता है । कर्मो का नाश चारित्र पालन से होगा । सम्यक् नारित्र, सम्यग्ज्ञान
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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