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श्री चन्द्रप्रभ जिन स्तुति
विरोध को मेटने वाली है । ऐसी वारगी के वक्ता श्राप श्री चन्द्रप्रभ भगवान सच्चे प्राप्त
। इसलिये आपको मैं नमन करता हूँ ।
भुजङ्गप्रयात छन्दः
स्वमत श्रेष्ठता का घरे मद प्रवादी, सुनें जिन वचन को तजें मद कुवादी । यथा मस्त हाथी सुनें सिंह गर्जन, तजें मद तथा मोह का हो विसर्जन ॥ उत्थानिका और भगवान कैसे थे सो कहते हैं
यः सर्वलोके परमेष्ठितायाः पदं बभूवाद्भुतकर्मतेजाः । श्रनन्तधामाक्षरविश्वचक्षुः समन्तदुःखक्षयशासनश्च ॥ ३६ ॥
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श्रन्वयार्थ - ( यः ) जो चन्द्रप्रभ भगवान ( अद्भुतकर्मतेजाः ) सर्व प्राणियों को एक साथ अपनी अपनी भाषा में समझाने के लिए श्राश्चर्यकारी कार्य के तेज को रखने वाले हैं व ( अनन्तधामाक्षर विश्वचक्षुः ) जो अनन्त ज्योति स्वरूप श्रविनाशी विश्व को एक साथ देखने को समर्थ ऐसे केवलज्ञान के स्वामी हैं ( समंतदुःखक्षयशासनः ) तथा जिनका शासन व उपदेश समस्त दुःखों का क्षय करने वाला है, परम सुखमई मोक्ष को देने वाला है, ऐसे भगवान ( सर्वलोके ) इस सर्व तीन लोक में ( परमेष्टिताया: पदं बभूव ) उत्कृष्ट पद के धारी श्री अरहन्त परमेष्ठी हुए ।
भावार्थ - यहां पर श्री अरहन्त भगवान के अरहन्त पद का महात्म्य वर्णन किया है । तीन लोक में जितने बड़े २ इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवर्ती राजा प्रसिद्ध हैं वे सब आपको परमेष्ठी मानते हैं, क्योंकि श्राप ऐसे पद में विराजमान हैं जिसको कोई कर्मों के फन्दों में पड़े हुए संसारी जीव नहीं प्राप्त हैं । प्रापने संसार में श्रात्मा को मलीन व निर्बल रखने वाले चार घातिया कर्मों का नाश कर डाला है। इसलिए न कोई श्राप में अज्ञान है, न मोहादि कषाय भाव है, जिनमें प्रायः सर्व जगत् के कर्मबद्ध प्रारणी ग्रसित हैं । प्राप इसी काररण परमोच्च अरहन्त परमात्मा हैं । फिर श्रापका तेज ऐसा प्रभावशाली है कि आपकी विव्यध्वनि जब प्रगट होती है उसमें ऐसा पदार्थों का प्रकाश होता है जिससे सुनने वाले
नेक देव मानव व पशु अपनी २ भाषा में मतलब समझ जाते हैं और पदार्थो का सच्चा स्वरूप पाकर अपना अज्ञान व मोह मिटाते हैं, तथा धर्मामृत से सिंचित हो परमं तृप्त हो