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________________ ८० स्वयंभू स्तोत्र टीका प्रनाद्यविद्यामयमूछितांगं, कामोदरक्रोधहुताशतप्तम्। स्याद्वादपीयूषमहौषधेन, प्रायस्थ मां मोहमहाहि-दष्टम् ।। ३१ ।। भावार्थ-अनादिकाल के अज्ञानरूपी रोग से मेरा आत्मा मूछित होरहा है, व इच्छा मेरे भीतर भरी हुई है तथा क्रोध की अग्नि से तप रहा हूं। मुझे मोहरूपी महान् सर्प ने काट रक्खा है । उसका विष चढ़ा हुआ है सो हे स्वामी ! स्याद्वाद वाणीरूपी अमृत की महान् औषधि पिलाकर मेरी रक्षा करो। भुजंगप्रयात छद। तुही चन्द्रमा भविकुमुदका विकासी, किया नाश सब दोष मल मेघराशी। प्रगट सत् वचनकी किरण माल व्यापी, करो मुझ पवित्रं तुही शुचि प्रतापी ।। (९) श्री पुष्पदंत तीर्थंकर स्तुतिः । एकान्तदृष्टिप्रतिषेधि तत्त्वं, प्रमाणसिद्ध तदतत्स्वभावम् । त्वया प्रणीतं सुविधे स्वधाम्ना, नैत-समालीढ़पदं त्वदन्यैः ॥४१॥ अन्वयार्थ- ( सुविधे ) हे सुविधि अर्थात् शोभनीक चारित्र के पालने वाले श्री पुष्पदंतनाथ भगवान् ( त्वया ) आपने ( स्वधाम्ना ) अपने केवलज्ञानरूपी तेज से यथार्थ जानकर [ तत्त्वं ] जीवादि वस्तुओं के स्वभाव को [ एकांतदृष्टिंप्रतिषेधि ] एकांत दर्शन का निषेधक अर्थात् अनेकांत दर्शन का पोषक [ तदतंत् स्वभावम् ] तत् तथा अतत् स्वरूप अर्थात् किसी अपेक्षा से किसी स्वरूप है, दूसरी अपेक्षा से उस स्वरूप नहीं है ऐसा [ प्रमाणसिद्धं ] तथा जो प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमारणों से सिद्ध है [ प्रणीतं ] वर्णन किया है। त्वदन्यैः ] आपसे अन्य जो सर्वज्ञ वीतराग नहीं हैं उन्होंने [ एतत् ] इस प्रकार तत्व का [ समालीढ़पदं न ] स्वाद या अनुभव नहीं प्राप्त किया है। भावार्थ-यहां श्रीपुष्पदंत तीर्थकरका दूसरा नाम सुविधि कहकर उसकी सार्थकता वताई है कि जैसा प्रभुका नाम है वैसे ही उनमें गुण है। सुविधि शब्द बताता है कि निसमें सु अथांत शोभनीय विधि अर्थात् क्रिया अनुष्ठान या चारित्र हो तथा दूसरा प्रय यह भी होसकता है कि जिसने शोभनीक व उत्तम व यथार्थ विधि अर्थात् मोक्षप्राप्तिकी विधिको या वस्तुके स्वरूपको बताया हो। इसी वातका विस्तार करते हुए स्वामी कहते
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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