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स्वयंभू स्तोत्र टीका
क्योंकि भगवान सर्वज्ञ वीतराग हैं इसके लिये उनकी वाणी से वे ही तत्व प्रकाशित हुए जो यथार्थ हैं । तत्त्व श्रनेकान्त स्वरूप है, एक ही स्वभाव को रखने वाला नहीं है । हरएक द्रव्य किसी अपेक्षा नित्य है किसी अपेक्षा प्रनित्य है । किसी अपेक्षा भाव रूप है किसी अपेक्षा प्रभाव रूप है । हरएक द्रव्य सदा से सत् रूप है । न कभी बना न बिगड़ेगा । तथापि उसमें पर्याय बदलती रहती हैं । इसलिए वह अनित्य या असत् रूप भी है । श्रापके वचनों को सुनकर व बुद्धि से विचार कर यही प्रतीति होती है कि श्राप वही बता रहे हैं। जैसा कुछ वस्तु स्वभाव है । तब बड़े २ एकान्त मतवादी जिनको इस बात का श्रहङ्कार था कि हमारा मत यथार्थ है, हम ठीक मार्ग पर चल रहे हैं जिनमें से कोई पदार्थ को सर्वथा एक ही मानते थे कोई सर्वथा अनेक ही मानते थे, कोई सर्वथा सत् हो मानते थे, कोई सर्वथा सत् ही मानते थे, कोई आत्मा को सर्वथा शुद्ध व अकर्ता ही मानते थे, कोई उसे सर्वथा अशुद्ध व कर्ता ही मानते थे । इत्यादि भिन्न-भिन्न एक हो स्वभाव को लेकर चलने वाले मत थे वे अपनी भूल को समझकर अपना प्रहङ्कार छोड़ देते हैं और सरल होकर आपके मत के अनुयायी हो जाते हैं । उनका श्रहङ्कार उसी तरह भाग जाता है जिस तरह वन में बड़े २ मदोन्मत्त हाथी विचरते हों, परन्तु जब वे सिंह की गर्जना सुनते हैं तो मद रहित हो जाते हैं और छिपकर बैठ रहते हैं ।
श्री श्रमृतचन्द्र सूरि ने पुरुषार्थ सिद्धय पाय में भगवान की वाणी को ऐसा हो अपूर्व समझकर नमस्कार किया है
परमागमस्य वीजं निपिद्धजात्यंघ सिंघुर विधानम्
सकलनयविलसितानां विरोधमथन नमाम्यनेकान्तम् ॥२०॥
भावार्थ -- मैं अनेक स्वभावों को बताने वाली अनेकान्त वारणी को इसीलिए नमन करता हूँ कि यह परमागम का बीज है अर्थात् सर्वज्ञ के ज्ञान को यथार्थ झलकाने के लिए परम उच्च साधन है तथा जिसने एकान्तवादियों को अनेकान्तवादी बना दिया है । जैसे
जन्म के प्रधे हाथी
न जानते
पूछ को पकड़कर उतने ही भाग को हाथी मानते, कोई एक टांग पकड़कर उसे ही
मानते, कोई सड़
हाथी मानते, इस समझाए जाते
२ थे, जब किसी हाथी के देखने वाले जानकर अपने ग्रज्ञान का श्रहङ्कार छोड़ विरोध दिखता है उस सब
आपकी वा
उतने
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के पूर्ण