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श्री चन्द्रप्रभ जिन स्तुति अल्पज्ञान है । भीतर उसके केवलज्ञानावरण का पूर्ण अन्धेरा व्याप्त है जिसे वह दूर नहीं कर सकता । परन्तु धन्य हैं आप । अापने ऐसा शुक्लध्यानमई व आत्म समाधि रूप नित्य प्रकाश रहने वाला दीपक जला दिया है जिससे सर्व अज्ञान का अंधकार सदा के लिए नाश हो गया है। पूर्ण केवलज्ञान का प्रकाश हो गया है। अन्तरंग बहिरंग सर्व तम के नाश करने वाले अद्भुत सूर्य के समान जगत का सूर्य क्या बराबरी रख सकता है ? कुछ भी नहीं । इसलिये हे चन्द्रप्रम भगवान ! आप इस सूर्य से कहीं अधिक परम अद्भुत सूर्य हो । इसीलिये मैं आपको बार २ नमन करता हूँ।
- श्री पद्मनन्द मुनि धम्मरसायरण में कहते हैं- लोयालोयविदण्हू तम्हा णामं जिणस्स विण्हूत्ति । जम्हा सीयलवयणो तम्हा सो बुच्चए चंदो ॥१२६।। ... भावार्थ-जिनेन्द्र को विष्णु इसीलिये कहते हैं कि वे लोक अलोक सर्व के जानने वाले हैं, क्योंकि भगवान के वचन अति शीतल हैं, शान्तिदाता हैं । अतएव भगवान ही सच्चे चन्द्रमा कहे जाते हैं ।
भुजङ्गप्रयात छन्द हरै भानुकिरणे यया तम जगत का, तथा अंग भामंडलं तम जगत का।
शुकलध्यान दीपक जगाया प्रभू ने, हरा तम कुबोधं स्वयं ज्ञानभूने ।। ३७ ।। . . उत्थानिका-श्री जिनेन्द्र का उपदेश सुनकर मतवादी अपने पक्ष के अहंकार से रहित होगए ऐसा कहते हैंस्वपक्षसौस्थित्यमदावलिप्ता, वाक्सिहनादेगिमदा बभूवुः ।
प्रवादिनो यस्य मदाद्र गण्डा,गजा यथा केशरिणो निनादैः ॥३८॥ . अन्वयार्थ-( यथा ) जैसे ( केशरिणः) सिंह की ( निनादैः ) गर्जना से ( मदागण्डाः ) मद से अपने अपने कपोलों को भिगोए हुए (गजाः) हाथी (विमदा) मद रहित (बभव:) हो जाते हैं वैसे [यस्य] इस चन्द्रप्रभ भगवान के [वाक-सिंहनादैः] वचन रूपी सिंहनाद से स्वपक्षसौस्थित्यमदावलिप्ताः] अपने पक्ष की उत्तमता के अहङ्गार से लिप्त [प्रवादिनः] अन्य मत वाले [विमदाः बभूवुः] महङ्कार रहित होगए ।
भावार्थ-यहां पर अरहन्त भगवान की दिव्य ध्वनि का महात्म्य वर्णन किया है।
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