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________________ ७४ स्वयंभू स्तोत्र टीका इसलिये आपके कभीभी रागादिक दोष नहीं होतेहैं ! केवलज्ञानका प्रकाश होजाने से आपके मतिज्ञान व श्रुतज्ञान नहीं रहा है, इसी से न इन्द्रियों का व्यापार है न मन की संकल्प विकल्प रूप चञ्चल क्रिया है । तथापि आप केवलज्ञानमई दिव्य चक्षु से सर्व विश्व को एक साथ जानते व देखते हो । आपकी महिमा अपार है । भुजङ्गप्रयात छन्द प्रभ चन्द्र सम शुक्ल वर वर्णधारा । जगत नित प्रकाशित परम ज्ञानधारी ।। जिनं जितकषायं महत् पूज्य मुनिपति । नम चन्द्रप्रभ तू द्वितिय चन्द्र जिनपति ॥३६॥ उत्थानिका-और कैसे श्री चन्द्रप्रभ भगवान् हैंयस्यांगलक्ष्मीपरिवेषभिन्नं, तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नम् । ननाश बाह्यं बहुमानसं च, ध्यानप्रदीपातिशयेन भिन्नम् ।।३७॥ अन्वयार्थ-( तमोरेः रश्मिभिन्न तमः इव ) जैसे सूर्य की किरणों के द्वारा अन्धकार छिन्न-भिन्न कर दिया जाता है इसी तरह ( यस्य अंगलक्ष्मीपरिवेपभिन्न बाह्य तमः) अपने शरीर के प्रभामण्डल के द्वारा छिन्न-भिन्न किये गए बाहरी अन्धकार को जिन्होंने ( ननाश ) नाश कर डाला है ( च ध्यानप्रदीपातिशयेन भिन्न बहमानसं ) और जिन्होंने शुक्लध्यानमई अदभुत दीपक के प्रभाव से अति गहरा अन्तरंग का अज्ञान मंधकार भी नष्ट कर डाला है ऐसे चन्द्रप्रभ को मैं नमन करता हूँ। भावार्थ-यहां यह दिखलाया है कि चन्द्रमा तो आपकी उपमा के लायक नहीं है, कदाचित् सूर्य तो होगा, उसके लिए प्राचार्य कहते हैं कि सूर्य भी आपके सामने कुछ नहीं है । सूर्य की किरणें जब फैलती हैं तव ही बाहर का अंधेरा मिटता है । जब किरणें अस्त हो जाती हैं तब फिर अंधेरा फैल जाता है। सूर्य सदा के लिए प्रकाशित नहीं रहता परन्तु आप हे चन्द्रप्रभ ! अद्भुत सूर्य हो जो सदा ही प्रकाशित रहते हो । इसीलिये अापके परमौदारिक शरीर की प्रभा का मण्डल ऐसा तेजस्वी है कि उसके द्वारा सदा ही बाहरी अन्धकार दूर रहता है। आपके सामने बाहरी अन्धकार कभी प्रा नहीं सकता है । सूय को रात्रि का तम ग्रस लेता है, आपको कोई तम नहीं छा सकता है। क्योंकि यापने ऐसा हो नाश कर दिया है जो फिर आपके सामने पा ही नहीं सकता। सूर्य तो मात्र बाहरी अन्धकार कुछ देर के लिये हटाता है परन्तु अन्तरंग में तो वह अज्ञानी है, उसे बहुत ही
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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