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श्री सुपार्श्व जिन स्तुति
योग्य प्रमाणीक आत्मा हैं । श्राप सर्वज्ञ व सर्वदर्शी हैं क्योंकि आपने ज्ञानावरण दर्शनावरण व अन्तराय का नाश कर डाला है, इसलिये सर्व ही तत्त्वों को श्राप यथार्थ जानते हैं। आप ही पहचानते हैं कि क्या त्यागने योग्य है व क्या ग्रहण करने योग्य है । पापने मोह कर्म का सर्वथा क्षय कर डाला है इससे आपमें पूर्ण वीतरागता है । प्राप में कोई राग द्वेष व स्वार्थ सम्भव नहीं है जिससे आप अन्यथा कहें, इसलिये श्रापने यथार्थ उपदेश दिया है । जिस तरह माता बालक को समझाती है उसकी भलाई का मार्ग बताती है उसको दुःख व हानि से बचने को शिक्षा देती है उसी तरह आपने सर्व प्राणी मात्र का कल्याणकारक उपदेश दिया है । फिर जो अति निकट भव्य जीव हैं, मोक्ष मार्ग पर चलना चाहते हैं उनके प्राप ही पथ प्रदर्शक हैं वे प्रापके ही चरित्र का अनुकरण करते हुए आपके समान हो जाते हैं । प्राप पूर्ण श्रानन्दमई हैं, निविकार हैं, सर्वज्ञ हैं, परम हितोपदेशी हैं । यह प्रमाणीक पूजने योग्य देव का लक्षण हो सकता है प्रभु ! यह बात मैंने आपके प्रमाणीक वचनों से निश्चय कर ली है । आपका उपदेश ऐसा हो है जैसा वस्तु स्वरूप है । वस्तु नित्य, प्रनित्य, एक. अनेक आदि अनेक स्वभाव रूप है ऐसा श्रापने प्रतिपादन किया है । इन्द्रियों के भोग अतृप्तिकारी, क्षणिक व तापवर्द्धक हैं व भवभ्रमरण के कारण हैं । ऐसा ही प्रापने बताया है ।
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श्री समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि है
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राग द्व ेष मोह बन्ध के कारण हैं । वीतरागमई आत्मा की अनुभूति व रत्नत्रयमई एक परिणति बन्ध की नाशक है । शक्ति की साधिका है व सुख शान्ति की सीढ़ी है । इसी भेद विज्ञान पूर्वक स्वानुभव से मुझे झलकता है सो ही आपने बताया है । कर्मों का उदय व बन्ध होता है । तथापि धर्म पुरुषार्थ कर्मों का विवश कर सकता है यह सब सच्चा तत्त्व श्रापने बताया है । जैसी जैसी मैं परीक्षा करता हूँ आपके उपदेश की सत्यता पाता हूँ व मैं यदि कुछ भी आपके बताए हुए मार्ग पर अटल रहता हूँ, मुझे सुख शान्ति मिलती है, इसलिये मुझे निश्चय है कि श्राप ही यथार्थ प्राप्त हैं, वक्ता हैं व इन्द्रादि देवों से व गणधरादि से भी नमन करने योग्य हैं ।
आप्तमीमांसा में स्वयं स्वामी तमन्तभद्राचार्य अपनी परीक्षा प्रधानता को भले प्रकार बताते हैं स्वामी कहते हैं
सत्वमेवासि निर्दोष युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । श्रविरोधो यदिष्ट ते प्रसिद्ध ेन न वाध्यते ॥ ६ ॥ त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानांस्वष्टं दृष्टेन बाध्यते ||७||