________________
स्वयंभू स्तोत्र टीका भावार्थ-भवितव्यता, विधाता, काल, नियति, पूर्वकृत कर्म, वेधा, विधिस्वभाव, भाग्य, देव ये सब शब्द एकार्थवाची हैं । यह मानव निर्मल बुद्धिसे रात दिन किसी अन्य ही कार्यकी चिता किया करता है परन्तु कर्मोका उदय कुछ अन्य ही प्रागे लावेता है, नहीं समर्थ कोई है जो इसे रोक सके । इस लोकमें न तो चक्रवर्ती, न इन्द्र, न विद्याधर कोई में भी यह शक्ति नहीं है कि जो तीन कर्मों के उदयको रोक सके । जैसे सूर्यका उदय व अस्त अपने आधीन नहीं है वैसे कर्मोंका उदय या नाश अपनी चाहना पर नहीं है।
एक धर्म पुरुषार्थ तो अवश्य मन्द कर्मोका क्षय कर सकता है व पुण्यका लाभ करा सकता है, बिना धर्मके तो कोई भी देवके आक्रमणसे बचानेवाला नहीं है। इसलिये पुरुषार्थका एकांत मत मिथ्या है, ऐसा समझना ही संतोषका कारण है।
छन्द चौपाई। डरत मृत्यसे तदपि टलत ना, नित हित चाहे तदपि लभत ना।
तदपि मूढ़ भय वश हो कामी, वृथा जलत हिय हो न कामी ।।४॥ उस्थानिका-जिसके उपदेश त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्य तत्वोंका यथार्थ कथन है वही प्रमाणीक होता है । क्या श्री सुपार्श्वनाथ भगवान् ! आपका वचन ऐसा ही है ? इस शंकाका समाधान करते हुए कहते हैं--
सर्वस्य तत्त्वस्य भवान्प्रमाता, भातेव बालस्य हितानाशास्ता । गरगावलोकस्य जनस्य नेता, मयापि भक्त्या परिणूयतेऽद्य ॥३५॥
अन्वयार्थ--(भवान् ) है सुपार्श्वनाथ भगवान ! श्राप ही ( सर्वस्य तत्त्वस्य ) सर्व ही त्यागने लायक व ग्रहण करने लायक तत्वोंके ( प्रमाता ) संशयादि दोषस रहित ज्ञाता हैं व ( माता बालस्य इव हितानुशास्ता ) जैसे नाता बालकको हितकारी शिक्षा देती है उसी तरह अाप भव्यजीवोंको जो अज्ञानी हैं, हितकारी तत्वको शिक्षा देते हैं ( गुणावलोकस्य जनस्य नेता ) बाप ही सम्यग्दर्शनादि गुणोंके खोजी भव्यजीवका यथार्थ मार्गको दिखानेवाले हैं। इसीलिये ( अद्य ) प्राज ( मया अपि ) मेरेसे भी ( भक्त्या परिणूयते ) श्राप भक्तिपूर्वक स्तुति किये गए हैं।
भावार्थ-इस श्लोकमें दिखाया है कि है सुपार्श्वनाथ भगवान ! मैं अाज अापको भक्ति से प्रेरित हो जो स्तुति कर रहा उसमें कारण यही है कि श्राप हो स्तुति करने