________________
omsamundan-DRAMA
६२
स्वयंभू स्तोत्र टीका हेतु करना सूर्खता है, उल्टा और अधिक दुःखों में अपने को पटकने का उपाय है । जो वस्तु नाशवंत है व तापवृद्धि कारक है उसे चाहना नितांत नादानी है । वह अविनाशी सुखशांतिलई अवस्था है उसी की ही भावना रखकरके धर्म का साधन करना चाहिये। श्री पूज्यपादस्वामी ने इष्टोपदेश में ठीक ही कहा हैपर: परस्ततो दुःखमात्मेवात्मा ततः सुखं । अत एव महात्मानस्तनिमित्तं कृतोद्यमाः ।। ४५ ॥ . प्रात्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारवहिःस्थिते: । जायते परमानन्द: कश्चिद्योगेन योगिनः ॥ ४७ ॥ पानंदो निर्दहत्यद्ध कर्मेन्धनमनारतं । न चासौ खिद्यते योगी वहिर्दु:खेष्वचेतनः ।। ४८ ।। अविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् । तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तदृष्टव्यं मुमुक्षभिः ।। ४६ ॥
भावार्थ--शरीर व भोगादि सब पर हैं, उनमें ममत्व करना दुःख ही का कारण है । आप स्वयं प्रात्मा ही है उसीसे ही सुख होता है । इसलिये महात्मा लोग प्रात्मा ही के हित के लिए व प्रात्मारूप रहने के लिए उद्यम करते हैं। क्योंकि जो आत्मानुभव में लीन होते हैं तथा व्यवहार के प्रपंच से बाहर रहते हैं उन योगियों को योग के बल से कोई अपूर्व अकथनीय परमानन्द होता है । वही आनन्द अतिशय रूप से कर्म के ईंधन को निरन्तर जलाता रहता है। उस आनन्द में ही मग्न रहने से वह योगी बाहरी दुःख उपसर्ग पड़ने पर भी उनकी तरफ कुछ भी ध्यान न देता हुआ खेद को नहीं प्राप्त होता है । इसलिये अज्ञान से दूर उस महान ज्ञानमई आत्मज्योति का ही प्रश्न करना चाहिये । उसी की चाह करनी चाहिये, उसी का ही अनुभव करना चाहिये । यही मोक्ष के इच्छुकों का व स्वाधीनता प्रेमियों का कर्तव्य है।
सारसमुच्चय में कुलभद्राचार्य कहते हैंभुक्त्वाप्यनन्तरं भोगान् देवलोके यथेप्सितान । यो हि तप्ति न सम्प्राप्तः स कि प्राप्स्यति सम्प्रति ॥ वरं हालाहलं भुक्तं विषं तद्भवनाशनम् । न तु भोगविषं भुक्तमनन्तभवदुःखदम् ।।७६॥ इन्द्रिय प्रभवं सौख्य सुखाभासे न तत्सुखं । तच्च कर्मविबंधाय दुःखदानकपंडितं ॥७७॥
भावार्थ-देवलोक में यथेच्छित इन्द्रिय भोगों को बरावर भोगते रहने से जो तृप्त न हुअा वह वर्तमान के तुच्छ भोगों से क्या तृप्त होगा ? वास्तव में हालाहल विष पीलेना ठीक है, उससे इसी शरीर का नाश है परन्तु इन्द्रिय भोगरूपी विष का खाना ठीक नहीं है, क्योंकि वह अनन्त जन्मों में दुःख देने वाला है। इन्द्रिय भोग से होने वाला सुख सुखसा दीखता है वह यथार्थ सुरव नहीं है, उससे कर्मों का बंध होता है, वह तो दुःख देने में अति प्रवीण है।