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श्री सुपार्श्व जिन स्तुति ( सुपार्श्वः ) सप्तम तीर्थंकर सर्व अोर परम शोभा को रखने वाले श्री सुपार्श्वनाथ तीर्थकर ( आख्यत् ) वर्णन किया है ।
भावार्थ-यहां पर यह बताया है कि सुपार्श्वनाथ तीर्थंकर ने जगत के प्राणियों को वस्तु का सच्चा स्वरूप बताया है । इस लोक में जगत के प्राणियों का ध्येय सुख शांति पाना है । सब जीव मात्र सुख शान्ति चाहते हैं। पशु, पक्षी, कीट, मानव कोई भी दुःख व क्लेश नहीं चाहते हैं। जहां शांति होती है वहां पशु भी आकर बैठ जाते हैं । कोई मानव भी क्रोधादि महीं चाहता है-जब दुःखादि हो जाते हैं तब क्लेशित होता है - पीछे पछताता है। वह सुख शांति कहीं अन्य स्थान में नहीं मिल सकती है, वह हर एककी प्रात्माके स्वभावमें है । जो आत्मा आत्मस्थ हो जाते हैं, जो स्वानुभव करते हैं स्वरूप मग्न होते हैं, उनहीको सुख शांतिका लाभ होता है। जितना जितना प्रात्मस्वरूपमें तल्लीनपना है उतना उतना आनंद होता है व वीतरागताका लाभ होता है। अत्यन्त व अविनाशी स्वरूपको मग्नता तब ही होती है जब कर्मोंके बंधनोंसे छुटकर मुक्त होजावे, अपने पूर्ण ज्ञानादि गुरणोंका लाभ करले, फिर सदा ही स्वरूपानंदका अपूर्व लाभ होगा। न कभी ताप होगा न चिता होगी, न कोई खेद होगा, न कोई वियोग होगा, न कभी नाश होगा । इसलिये सर्वका यही ध्येय उचित है कि पात्मिक स्थिरता प्राप्त हो । यही उद्देश्य सच्चा है । जो इन्द्रियके भोगोंका प्रयोजन रक्खा जायगा और उनहीके लिये तपस्या व धर्म कर्म व प्रयत्न किया जायगा तो वह असत्य उद्देश्य है। क्योंकि इन्द्रिय भोगोंके पदार्थ एकरप सदा साथ नहीं रह सकते-वे क्षणभंगुर हैं। बड़े २ चक्रवर्ती आदिके भोग भी नाश होजाते हैं व उन्हें स्वयं ही छोड़ना पड़ता है। दूसरे उनके भोग करते रहनेसे और अधिक तृष्णा बढ़ती जाती है। जिस अंतरंग चाहको मिटानेके लिये इन्द्रिय भोग किये जाते हैं वह चाह किसी तरह बुझती नहीं है। अग्निमें ईंधन डालने से जसे प्राग बढ़ती जाती है वैसे भोग करते २ तृष्णा बहुत प्रचण्ड होती जाती है-कभी भी मनका आताप शांत नहीं होता है। सहस्रों व लाखों वर्षों तक व सागरों तक भोग किया । जाय फिर भी तृप्ति नहीं होती है । अंत में जब मरने लगता है तब पछताता है व वियोग से प्रार्तध्यान करके दुर्गति में चला जाता है। ऐसा यथार्थ वस्तुका स्वरूप बताकर हे भगवन् ! आपने जीवों का परम कल्यारण किया है । आप परम प्रतापी ऐश्वर्यशाली अतरंग ज्ञानादि लक्ष्मी व बहिरंग समवसरणादि लक्ष्मी से शोभायमान हैं। अापके कथन की सत्यता की प्रशंसा नहीं की जा सकती है । इस श्लोक में प्राचार्य ने संकेत किया है कि हम सबको धर्मका सेवन आत्मिक सुखशांति के हेतु से ही करना योग्य है, भोगों के
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