SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सुपार्श्व जिन स्तुति छन्द चौपाई | (१६) जय सुपार्श्व भगवन हित भाषा, क्षणिक भोग को तज श्रभिलाषा । तप्त शांत नहि तृष्णा बघती, स्वस्थ रहे नित मनसा सघती ||३१|| ६३ उत्थानिका - भगवान ने मात्र इन्द्रिय सुख का ही स्वरूप नहीं बताया किन्तु शरीर का भी स्वरूप बताया सो कहते हैं जंगमं जंगमनेययन्त्रं यथा तथा जीवधूतं शरीरम् । बीभत्सु पूति क्षयि तापकं च, स्नेहो वृथाऽयेति हितं त्वमाख्यः । ३२। अन्वयार्थ - ( यथा ) जैसे ( जंगमं ) बुद्धि पूर्वक न चलने योग्य हाथी घोड़े 5 आदि का खिलौना ( जंगमनेययंत्र ) कोई चलाने वाले के द्वारा काम करने लगता है (तथा) वैसे ही ( शरीरम् ) यह जड़ शरीर स्वयं बुद्धि पूर्वक क्रिया नहीं कर सकता है परन्तु ( जीवधृतं ) चेतन स्वरूप जीव के द्वारा धारा हुआ है । उस जीव की ही प्रेरणा से चलना बैठना सोना आदि काम करता है । ( बीभत्सु) फिर यह शरीर प्रति घिनावना है या कुरूप है ( पूर्ति) दुर्गंधमय है ( क्षयि ) नाशवंत है ( च तापकं ) और वह दुःखों का कारण हैं [त्र ] इस शरीर में [ स्नेहः वृथा ] अनुराग करना निष्फल है । [ इति हितं . ] ऐसी हितरूपी शिक्षा [त्वं ] श्रापने [ श्राख्यः ] कही है । भावार्थ — इस श्लोक में शरीर का सच्चा स्वरूप बताया गया है कि यह शरीर जड़ है क्योंकि जड़ पुद्गल के परमाणुत्रों के बने हुए श्राहारक वर्गणारूप स्कंधों से बना हुआ है । इसमें स्वयं समझ करके काम करने की शक्ति नहीं है । जब तक इसमें जीव बना रहता है तब तक ही यह उठता बैठता, चलता, फिरता, खाता, पीता, बात करता व नाना प्रकार की क्रियाएँ करता है । उन सब क्रियाओं के होने में अंतरंग जीव के उपयोग की प्रेरणा रहती है । या जीव की योग शक्ति की प्रेरणा रहती है । कर्मबंध सहित जीव में योग और उपयोग ही नाना प्रकार कार्य करते हैं । जैसा समयतार में कहा हैजीवो ण करेदि घड व पडं व सेसगे दब्वे । जोगुवोगा उप्पादगा य सो तेसि हवदि कत्ता ॥ १०० भावार्थ - जीव स्वयं न तो घड़ा बनाता है, न कपड़ा, न अन्य द्रव्यों को बनाता है । उसमें जो कर्मों के उदय से योग का व उपयोग का परिरणमन है वे ही घड़े आदि के उत्पन्न होने में निमित्त हैं । इन योग व उपयोग का कर्ता व्यवहार से जीव कहा जाता है । जब तक यह शुद्ध जीव शरीर में रहता है सब क्रिया मन वचन काय की दिखलाई पड़ती है । जब यह जीव छोड़ के चला जाता है तब यह शरीर बिलकुल जड़ मिट्टी के
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy