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स्वयंभू स्तोत्र टीका
भीतर प्रभुका शरीर देदीप्यमान है । जगत के सब तेजों में उत्तम तेज व जगतकी सब ज्योतियोंमें उत्तम ज्योतिको प्रकाश करनेवाले परमात्मा अर्हतका ध्यान मोक्षकी प्राप्ति के लिये करे |
मुक्तादाम छन्द
प्रभू तन रश्मिसमूह प्रसार, बाल सूर्यसम छवि घरतार |
नर सुरपूर्ण सभा में व्यापा, जिस गिरि पद्मराग मणि तापा । २८ ।।
उत्थानिका—ऐसे अरहंत भगवान क्या एक ही स्थानपर रहे या उन्होंने बिहार किया सो बताते हैं
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नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः । पादाम्बुजैः पातितमारदर्पो, भूमौ प्रजानां विजह भूत्यै ॥ २६ ॥
अन्वयार्थ -- (त्व ) आपने ( पातितमारदर्प : ) कामदेव के घमण्डको चूर्ण कर डाला व प्राप [ सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः पादाम्बुजैः ] एक हजार पत्रधारी सुवर्णमई कमलोंके भीतर अपने चरणकमलोंसे चलते हुए [ नभस्तलं पल्लवयन् इव ] श्राकाशके प्रदेशों में मानों कमलके पत्तोंकी शोभाको विसारते हुए [ भूमौ ] इस आर्यक्षेत्र में [ प्रजानां भूत्यै ] प्रजाके कल्याण के लिये [विजहर्थ ] विहार करते हुए ।
भावार्थ - यहां भी अरहंत अवस्थाका ही कथन किया है। तीर्थंकर भगवान भव्य जीवों के पुण्य के उदयसे प्रार्यक्षेत्र में बिहार करते हैं उस समय ग्राकाश द्वारा गमन होता है, तब इन्द्र भक्तिसे पन्द्रह पन्द्रह कमलों की १५ पंक्तियां चरणों के नीचे रखता जाता है । ये कंमल सुवर्णमई १००० पत्तोंके धारी विकसित होते हैं उनके मध्य में ही भगवान के चरणकमल जो लालवर्णके थे चलते हुए ऐसी शोभाको दिखला रहे थे मानों श्राकाशमें लाल - कमलके पल्लव ही छारहे हैं- भगवान के चरणों की लाली सुवर्णपर पड़ती हुई ऐसी मनोहरता बता रही थी। जहां जहां भगवानका विहार हुआ वहां वहां समव सररण इन्द्रादि देव रच देते थे । प्रभुकी दिव्यध्वनिका प्रकाश होता था जिससे भव्यजीवों का प्रज्ञान अंधकार मिट जाता था व उनको मोक्षमार्गका उपदेश मिलता था । जैनी सम्यग्दृष्टि अनेक श्रावक व अनेक मुनि होते थे- वास्तविक तीर्थंकरपना व धर्मप्रचारपना होरहा था । धन्य हे प्रभु ! आपके प्रतापसे बहुत से जीवों ने अपना परम कल्याण किया । प्रापका विहार स्वयंके लाभके लिए नहीं किंतु जीवोंके परम हितार्थ हुआ ।
आप्तस्वरूप में कहा है:
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यस्य वाक्यामृतं पीत्वा भव्या मुक्तिमुपागताः । दत्तं येनाभयं दानं सत्त्वानां स पितामहः ।। ३६ ।।