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Aniameronema
श्री सुमति तीर्थकर स्तुति
५६ .. भावार्थ-जिस तीर्थकरके वचनामृतका पान करके भव्यजीव मुक्तिको प्राप्त हुए, जिसने सर्व प्राणियों को प्रभयदान दिया, सोही सच्चा पितामह तीर्थंकर है । वास्तव में तीर्थकर धर्म तीर्थका प्रचार करके परम हितका सम्पादन करते हैं।
मुक्तादाम छन्द । सहसपत्र कमलों पर विहरे, नभ में मानो पल्लव प्रसरे।
कामदेव जेता जिनराजा, करत प्रजाका पातम काजा ॥२६ । उत्थानिका-प्राचार्य स्तुति करते हुए अपना लघुपना बताते हैंगुरणाम्बुधेविषमध्यजस्म, नाऽऽखण्डलः स्तोतुमलं तवर्षेः । प्रागेव माहक्किमुतातिभक्त्तिी बालमालापयतीदमित्थम् ॥३०॥
अन्वयार्थ-[प्राण्खडलः] इन्द्र जब [गुणाम्बुधेः] गुरुगके समूह [तवर्षेः] आप परम ऋषिके [विषम् अपि] गुरणके एक अंश मात्रको भी [अजस्र ] निरन्तर स्तोतु अलं न] स्तवनके करने के लिये समर्थ न हुआ तब [प्रागेव मादृक् ] मैं तो पहले ही से असमर्थ हूं। मेरे समान अल्पज्ञानी आपकी कैसे स्तुति कर सकता है । [किमुत] परन्तु [अतिभक्तिः] आपमें जो मेरी परम भक्ति है वही [मां बालं] मुझ बालक सम तुच्छ ज्ञानी को [इदं इत्थ] आप ऐसे हैं व इस प्रकार हैं ऐसा [पालापयति] स्तवन करने के लिये प्रेरणा
करती है। .. भावार्थ-~यहां पर श्री समंतभद्राचार्य बताते हैं कि हे परमात्मन् ! श्री पद्मप्रभ
स्वामी ! प्रापके भीतर जो अपूर्व गुण हैं उनका कोई कथन कर ही नहीं सकता। . सौधर्मादि इन्द्र जो सर्वश्रुतज्ञानकी शक्ति रखते हैं ने भी जब निरन्तर उद्यम करके आपके गुरगके एक अंश मात्र को भी स्तुति न कर सके तब मेरे जैसा पूर्ण श्रुतज्ञान रहित अल्पज्ञानी आपकी स्तुति कैसे कर सकता है ? आप तो गुरगोंके समुद्ग हैं, इन्द्र तो एक वदको भी नहीं ग्रहण कर सकता तब मेरे में क्या शक्ति है जो मैं गुण समुद्रको स्पर्श भी कर सकू' ? परन्तु हे भगवन् ! आपके गुणों में जो गाढ़ श्रद्धा है व उससे उत्पन्न हुया जो तीव्र भक्तिभाव है वही मुझे चैन नहीं लेने देता और बार २ प्रेरित करता है कि मैं कुछ वर्णन करू सो मैं इतना ही पालापता हूँ कि आप ऐसे हैं व यह हैं । मैं स्तुति तो आपकी कर ही नहीं सकता। ऐसा मैं इसीलिये करता हूँ कि मेरा भाव आपकी तरफ अटका रहे जिससे यह वीतराग भगवानकी छायामें रह कर वीतरागरूप होजावे । मैं भवातापका