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HADRADHIMALA
श्री पद्मप्रभ जिन स्तुति शरीररश्मिप्रसरः प्रभोस्ते, बालार्करश्मिच्छनिरालिलेप। .. नरामराकीर्णसभा प्रभानच्छेलस्य पद्माभमणेः स्नसानुम् ।।२८।।
- अन्वयार्थ--(ते प्रभोः) हे पद्मप्रभ ! आप इन्द्रादि के स्वामी हैं आपके (बालार्करश्मिच्छविः ) प्रातःकाल के बाल सूर्य की किरणों के समान चमकने वाली लाल रंग के (शरीररश्मिप्रसरः)शरीर की किरणों के विस्तार ने (पद्माभमणेः शैलस्य प्रभा स्वसानु वत्)
मरिण के लाल पर्वत की ज्योति अपनी कटनी में फैल जाती है इस तरह[नरामराकीर्णसभा में मनुष्य और देवों से भरी हुई बारह सभा को [प्रालिलेप] व्याप्त कर लिया अर्थात् बारह
सभा में प्रापके शरीर की लाल ज्योति इस तरह फैल गई जैसे बाल सूर्य की किरणे जगत
में फैल जाती हैं। E ... भावार्थ-यहां पर प्राचार्य ने भगवान के शरीर की प्रभा का अच्छा चित्र खींचा - है। पद्मप्रभ भगवान का देह रक्तवर्ण का था । परमौदारिक होने से वह अत्यन्त प्रभाव
शाली व कोटि सूर्य की दीप्ति को भी मन्द करने वाला था। समवसरण में बारह सभा गंध कुटी के चारों तरफ लगी हैं। उनमें देव, मनुष्य, पशु आदि सब बिराजमान हैं। भगवान के शरीर से निकली हुई परम शांत लाल किरणें उन सब सभा निवासियों पर इस तरह फैल गई जैसी बाल सूर्य को शांत किरणें फैल जाती हैं । जैसे प्रातःकाल का सूर्य तापकारी नहीं होता है किन्तु बहुत ही रमणीक भासता है, इसी तरह भगवान के शरीर
की दीप्ति शांत थी-पातापकारी न थी। दूसरी उपमा यह दी है कि जैसे पद्मराग .. मरिण का पहाड़ हो तो उसकी चमक चारों तरफ किनारों पर फैल जाती है उसी तरह
प्रभु के शरीर की युति चारों तरफ फैल गई। यद्यपि इस श्लोक में मात्र शरीर की ही स्तुति है, केवली भगवान के प्रात्मा की स्तुति नहीं है तथापि यह स्तुति व्यवहार नय से केवली भगवान की ही है। क्योंकि ऐसा सुन्दर प्रभावशाली देह का होना व उसमें परम शांति का झलकना उस शरीर के भीतर रहने वाले केवल ज्ञानी वीतराग परमात्मा का हो प्रभाव है । अन्य साधारण मानव के ऐसी शरीर की दीप्ति संभव नहीं है।
तत्त्वानुशासन में नागसेन मुनि कहते हैं। प्रमास्वल्लक्षणाकीर्णसंपूर्णोदनविग्रहं । प्राकाशस्फटिकांतस्थज्वलज्ज्वालानलोज्ज्वलम् ।।१२७६ . तेजसामुत्तमं तेजो ज्योतिषां ज्योतिरुत्तमम् । परमात्मानमर्हन्तं घ्यायेनिःश्रेयसाप्तये ।।१२८॥
. भावार्थ-प्ररहंत भगवानका संपूर्ण दिव्य शरीर प्रभामई लक्षणसे पूर्ण रहता है, जैसे जलती हई अग्निकी ज्वाला किसी स्फटिकके भीतर रखदी जाय वैसे प्राकाशके