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स्वयंभू स्तोत्र टीका भावार्थ--इस श्लोक में यह भाव झलकाया है कि सत् पदार्थ का न सर्वथा नाश होता है न असत् पदार्थ को उत्पत्ति होती है। यह सिद्धांत अखंड है । तथापि जगत में उत्पत्ति व विनाश तो देखने में आता है। एक दूध से दही बना तब दही की उत्पत्ति हुई, दूध का नाश हुआ। एक सुवर्ण के कुण्डल को तोड़ कर कड़ा बना । तब कुण्डल विनशा, कड़ा बना । ऐसे कार्यो के होने में मात्र अवस्था या पर्याय पलटी है। जिस द्रव्य में अवस्थाएं हुई वह ध्र व या नित्य है । गोरस में दूध व दही की अवस्थाएं पलटी, गोरस दोनों में है । सुवर्ण में कुण्डल व कड़े की अवस्था पलटी, सुवर्ण दोनों में कायम है। इससे यह सिद्ध है कि कोई वस्तु सर्वथा न नित्य है न अनित्य है। वस्तु द्रव्य की अपेक्षा नित्य है बही पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। यदि सर्वथा नित्य माना जावेगा तो कोई भी कोई काम न कर सकेगा। तब जगत में कोई भी काम न होगा। सब एकसे ही रहेंगे । जो चलता है वह चलता ही रहेगा, कभी ठहरेगा नहीं । जो ठहरा है कभी चले ही नहीं । जो सूता है वह सूता ही रहेगा, जो जागता है बह जागता ही रहेगा । न रूई का सूत बनेगा न सूत से कपड़ा बुना जायगा, न कपड़े से कोट बनेगा । इसी तरह यदि सर्वथा वस्तु को अनित्य माना जायगा तो नाश के पीछे कुछ भी रहना न चाहिये । सो ऐसा देखने में नहीं प्राता । यदि कपड़े को जलाया जावे तो राख की उत्पत्ति हो जाती है। यदि मकान को तोड़ा जाय तो लकड़ी ईंट आदि रूप में प्रगट हो जाते हैं । यदि प्रकाश को नाश किया जाय तो अंधकार रूप में हो जाता है । सर्वथा उत्पत्ति व सर्वथा नाश तो किसी का होता ही नहीं। जो पदार्थ होगा उसी में उत्पत्ति अवस्था मात्र की होगी और जब किसी अवस्था की उत्पत्ति होगी तब पहली अवस्था का नाश अवश्य होगा । उत्पन्न होना भी प्रवस्था का ही है, नाश होना भी अवस्था का ही है। जिसमें ये दोनों बातें होती है वह द्रव्य बना रहता है। सर्वथा वस्तु नित्य है व सर्वथा क्षणिक है, दोनों ही बातें सिद्ध नहीं हो सकती । वस्तु नित्य अनित्य उभय रूप है, यह अनेकांत सिद्धांत हे सुमतिनाथ ! जो प्रापका है वही सिद्ध होता है। सामान्य द्रव्य कभी उपजता नहीं, विनशता नहीं, सदा बना रहता है इस कारण तत्त्व नित्य है । उसमें विशेषपना या पर्याय पना होता है इसस रहता वह अनित्य भी है । ऐसा ही स्वामी ने प्राप्तमीमांसा में भी बताया है
यदि सत् सर्वथा कार्य, पुवन्नोत्पत्त महति । परिणामप्रयतृप्तिश्च, नित्यत्वैकान्तवाधिनी ॥२॥ यद्यसत्सर्वथा कार्य, तन्माजनि खपुष्पवत् । नोपादाननियामोऽभून्माऽऽश्वासः कार्यजन्मनि ॥४२॥ न सामान्यात्मनोदेति, न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्यत्युदेति विरोपात, सहै कत्रोदयादिसत ॥५.७।।